Tenth of the Schedule e Indian Constitution
jp Singh
2025-07-08 13:44:55
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भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची
भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची
भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची (Tenth Schedule) में दल-बदल विरोधी कानून (Anti-Defection Law) से संबंधित प्रावधान शामिल हैं। यह अनुसूची अनुच्छेद 102(2) और 191(2) के तहत संदर्भित है और इसका उद्देश्य संसद और राज्य विधानमंडलों के सदस्यों द्वारा दल-बदल (Party Defection) को रोकना, राजनीतिक स्थिरता सुनिश्चित करना, और विधायी प्रक्रिया में निष्ठा को बढ़ावा देना है। इसे 52वाँ संशोधन (1985) के माध्यम से संविधान में जोड़ा गया। नीचे इसका विस्तृत विवरण दिया गया है, जिसमें संरचना, प्रावधान, ऐतिहासिक संदर्भ, महत्व, और संशोधन प्रक्रिया शामिल है।
1. दसवीं अनुसूची की संरचना दसवीं अनुसूची में दल-बदल के आधार पर संसद (लोकसभा और राज्यसभा) और राज्य विधानमंडलों (विधानसभा और विधान परिषद) के सदस्यों की अयोग्यता (Disqualification) से संबंधित नियम शामिल हैं। यह निम्नलिखित प्रमुख पहलुओं को कवर करती है
1. अयोग्यता के आधार: दल-बदल के कारण सदस्यों की अयोग्यता। स्वैच्छिक रूप से पार्टी छोड़ना या पार्टी के निर्देशों के खिलाफ मतदान करना।
2. छूट के प्रावधान: कुछ परिस्थितियों में, जैसे पार्टी विलय (Merger), अयोग्यता लागू नहीं होती।
3. निर्णय लेने वाली प्राधिकारी: अयोग्यता के मामलों का निर्णय लोकसभा/विधानसभा के अध्यक्ष या राज्यसभा/विधान परिषद के सभापति द्वारा लिया जाता है।
4. नियम और प्रक्रिया: अयोग्यता से संबंधित प्रक्रिया और नियमों को संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा बनाया जा सकता है।
2. वर्तमान प्रावधान (7 जुलाई 2025 तक)
(क) अयोग्यता के आधार दसवीं अनुसूची के तहत एक निर्वाचित सदस्य को निम्नलिखित आधारों पर अयोग्य घोषित किया जा सकता है:
1. स्वैच्छिक रूप से पार्टी छोड़ना: यदि कोई सदस्य उस राजनीतिक दल की सदस्यता स्वैच्छिक रूप से छोड़ देता है, जिसके टिकट पर वह निर्वाचित हुआ था। उदाहरण: यदि कोई विधायक अपनी मूल पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में शामिल हो जाता है।
2. पार्टी के निर्देशों के खिलाफ मतदान: यदि कोई सदस्य अपनी पार्टी के व्हिप (Whip) के खिलाफ विधानमंडल में मतदान करता है या मतदान से अनुपस्थित रहता है, बिना पार्टी की पूर्व अनुमति के। यह नियम केवल महत्वपूर्ण मतदानों (जैसे विश्वास प्रस्ताव, धन विधेयक) पर लागू होता है, जहाँ व्हिप जारी किया गया हो।
3. निर्दलीय सदस्य: यदि कोई निर्दलीय (Independent) उम्मीदवार के रूप में निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है, तो वह अयोग्य हो सकता है।
4. मनोनीत सदस्य: यदि कोई मनोनीत सदस्य (Nominated Member) किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है और बाद में उसे छोड़ देता है, तो वह अयोग्य हो सकता है।
(ख) छूट के प्रावधान विलय (Merger): यदि किसी राजनीतिक दल के दो-तिहाई या अधिक सदस्य किसी अन्य दल में विलय करने का निर्णय लेते हैं, तो संबंधित सदस्य अयोग्य नहीं होंगे। अध्यक्ष/उपाध्यक्ष का त्यागपत्र: यदि कोई सदस्य विधानमंडल में अध्यक्ष/उपाध्यक्ष का पद ग्रहण करने के लिए अपनी पार्टी छोड़ता है, तो वह अयोग्य नहीं होगा।
(ग) निर्णय प्रक्रिया प्राधिकारी: अयोग्यता का निर्णय लोकसभा/विधानसभा के अध्यक्ष या राज्यसभा/विधान परिषद के सभापति द्वारा लिया जाता है। प्रक्रिया: शिकायत प्राप्त होने पर, अध्यक्ष/सभापति को उचित सुनवाई के बाद निर्णय लेना होता है। न्यायिक समीक्षा: अध्यक्ष/सभापति के निर्णय को न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) के लिए चुनौती दी जा सकती है, जैसा कि किहोटो होलोहन बनाम जाचिल्हु (1992) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया।
(घ) 91वाँ संशोधन (2003): इस संशोधन ने दसवीं अनुसूची में बदलाव किया: विलय की छूट को सख्त किया: पहले एक-तिहाई सदस्यों के विलय को छूट मिलती थी, अब दो-तिहाई की आवश्यकता है। मंत्रिपरिषद का आकार सीमित: यह सुनिश्चित किया गया कि मंत्रिपरिषद का आकार विधानमंडल के कुल सदस्यों के 15% से अधिक न हो, जो दल-बदल को प्रोत्साहन देने वाली प्रथाओं को रोकता है।
3. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और संशोधन दसवीं अनुसूची का उद्भव भारत में 1960-70 के दशक में राजनीतिक अस्थिरता और दल-बदल की बढ़ती प्रवृत्ति से जुड़ा है। प्रमुख बिंदु
1. 1960-70 का दशक: इस दौरान दल-बदल के कारण कई राज्य सरकारें अस्थिर हुईं, जैसे हरियाणा में "आया राम, गया राम" की घटनाएँ। 1967 के बाद, कई विधायकों ने व्यक्तिगत लाभ के लिए पार्टियाँ बदलीं, जिससे राजनीतिक स्थिरता प्रभावित हुई।
2. 52वाँ संशोधन (1985): दल-बदल को रोकने के लिए दसवीं अनुसूची को संविधान में जोड़ा गया। इसका उद्देश्य विधायकों की निष्ठा को उनकी मूल पार्टी के प्रति सुनिश्चित करना और सरकारों की अस्थिरता को कम करना था।
3. 91वाँ संशोधन (2003): दल-बदल को और सख्त करने के लिए विलय की छूट को एक-तिहाई से बढ़ाकर दो-तिहाई किया गया। मंत्रिपरिषद के आकार को सीमित करने का प्रावधान जोड़ा गया।
4. न्यायिक व्याख्या: किहोटो होलोहन बनाम जाचिल्हु (1992): सर्वोच्च न्यायालय ने दसवीं अनुसूची को वैध ठहराया, लेकिन अध्यक्ष/सभापति के निर्णय को न्यायिक समीक्षा के दायरे में रखा। राजेंद्र सिंह राणा बनाम स्वामी प्रसाद मौर्य (2007): अध्यक्ष के निर्णय में देरी को असंवैधानिक माना गया।
4. दसवीं अनुसूची का महत्व
1. राजनीतिक स्थिरता: यह सरकारों को दल-बदल के कारण अस्थिर होने से रोकता है और जनादेश का सम्मान सुनिश्चित करता है।
2. पार्टी निष्ठा: यह विधायकों को उनकी मूल पार्टी के प्रति निष्ठा बनाए रखने के लिए प्रेरित करता है।
3. लोकतांत्रिक जवाबदेही: यह सुनिश्चित करता है कि निर्वाचित प्रतिनिधि अपने मतदाताओं और पार्टी के प्रति जवाबदेह रहें।
4. नैतिकता को बढ़ावा: दल-बदल की प्रथा को कम करके यह राजनीति में नैतिकता को बढ़ावा देता है।
5. संशोधन की प्रक्रिया संवैधानिक संशोधन: दसवीं अनुसूची में बदलाव के लिए संविधान संशोधन की आवश्यकता होती है, जो संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत से पारित होना चाहिए (अनुच्छेद 368)। संसदीय शक्ति: संसद को अयोग्यता से संबंधित नियम बनाने का अधिकार है। न्यायिक समीक्षा: अध्यक्ष/सभापति के निर्णय की समीक्षा सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय कर सकता है।
6. रोचक तथ्य
1. "आया राम, गया राम": यह वाक्यांश हरियाणा के विधायक गया लाल के बार-बार दल-बदल से उत्पन्न हुआ, जिसने दसवीं अनुसूची की आवश्यकता को रेखांकित किया।
2. अध्यक्ष की भूमिका: अध्यक्ष/सभापति की निष्पक्षता पर सवाल उठते रहे हैं, क्योंकि वे स्वयं किसी राजनीतिक दल से जुड़े हो सकते हैं।
3. विलय की छूट: दो-तिहाई विलय की छूट ने दल-बदल को कुछ हद तक नियंत्रित किया, लेकिन छोटे दलों के लिए यह चुनौती बनी हुई है।
4. न्यायिक हस्तक्षेप: किहोटो होलोहन केस ने दसवीं अनुसूची को मूल ढांचे के सिद्धांत के अनुरूप माना, लेकिन इसकी सीमाओं को भी रेखांकित किया।
7. दसवीं अनुसूची और अन्य अनुसूचियों से संबंध प्रथम अनुसूची: यह राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की सूची देती है, जिनके विधानमंडलों पर दसवीं अनुसूची लागू होती है। तृतीय अनुसूची: यह विधायकों की शपथ से संबंधित है, जो दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता से प्रभावित हो सकते हैं। सातवीं अनुसूची: यह विधायी शक्तियों का बँटवारा करती है, और दसवीं अनुसूची इन विधायी प्रक्रियाओं में स्थिरता लाती है।
8. समकालीन प्रासंगिकता राजनीतिक अस्थिरता: हाल के वर्षों में, महाराष्ट्र (2019, 2022), कर्नाटक (2019), और मणिपुर जैसे राज्यों में दल-बदल के कारण सरकारें अस्थिर हुईं, जिसने दसवीं अनुसूची की प्रासंगिकता को उजागर किया। अध्यक्ष की निष्पक्षता: अध्यक्ष/सभापति के निर्णयों पर पक्षपात के आरोप लगते रहे हैं, जिसके लिए सुधार की माँग उठ रही है। सुधार की माँग: कुछ विशेषज्ञ सुझाव देते हैं कि अयोग्यता के मामलों का निर्णय स्वतंत्र निकाय, जैसे निर्वाचन आयोग, को सौंपा जाए। विलय का दुरुपयोग: विलय की छूट का दुरुपयोग छोटे दलों को कमजोर करने के लिए होता रहा है।
Conclusion
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jp Singh
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