Article 363 of the Indian Constitution
jp Singh
2025-07-07 14:52:23
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भारतीय संविधान का अनुच्छेद 363
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 363
अनुच्छेद 363 भारतीय संविधान के भाग XIX (विविध) में आता है। यह भारत और उसके राज्यों के बीच संधियों, समझौतों आदि से संबंधित विवादों (Bar to interference by courts in disputes arising out of certain treaties, agreements, etc.) से संबंधित है। यह प्रावधान भारत सरकार और पूर्ववर्ती रियासतों (Princely States) के बीच हुए समझौतों या संधियों से उत्पन्न होने वाले विवादों में न्यायालयों के हस्तक्षेप पर रोक लगाता है।
"(1) किसी भी संधि, समझौते, या अन्य समान दस्तावेज़, जो भारत सरकार और किसी रियासत के शासक के बीच स्वतंत्रता से पहले या बाद में हुआ हो, से उत्पन्न होने वाले विवादों में कोई भी न्यायालय हस्तक्षेप नहीं करेगा।
(2) राष्ट्रपति ऐसे मामलों में निर्णय ले सकता है।"
उद्देश्य: अनुच्छेद 363 का उद्देश्य भारत सरकार और पूर्ववर्ती रियासतों के शासकों के बीच हुए संधियों और समझौतों से उत्पन्न होने वाले विवादों को न्यायिक हस्तक्षेप से बाहर रखना है। यह प्रावधान केंद्र सरकार को इन मामलों में पूर्ण अधिकार देता है, ताकि रियासतों के विलय से संबंधित संवेदनशील मुद्दों को प्रशासनिक रूप से हल किया जा सके। इसका लक्ष्य राष्ट्रीय एकीकरण, संवैधानिक शासन, और ऐतिहासिक समझौतों की पवित्रता को बनाए रखना है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: संवैधानिक ढांचा: अनुच्छेद 363 संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है, जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। यह स्वतंत्रता के समय भारत में 500 से अधिक रियासतों के विलय की प्रक्रिया को ध्यान में रखकर बनाया गया। भारतीय संदर्भ: 1947 में भारत की स्वतंत्रता के समय, रियासतों को भारत या पाकिस्तान में विलय के लिए विलय संधियाँ (Instruments of Accession) पर हस्ताक्षर करने थे। इन समझौतों में रियासतों को कुछ विशेषाधिकार (जैसे, प्राइवी पर्स) का वादा किया गया था। 26वां संवैधानिक संशोधन (1971) ने रियासतों के शासकों के विशेषाधिकार और प्राइवी पर्स को समाप्त कर दिया, जिससे अनुच्छेद 363 की प्रासंगिकता सीमित हो गई। उदाहरण: जम्मू-कश्मीर के विलय से संबंधित विवाद।
प्रासंगिकता (2025): हालांकि रियासतों के विशेषाधिकार समाप्त हो चुके हैं, यह प्रावधान ऐतिहासिक संधियों से संबंधित कुछ मामलों में अभी भी प्रासंगिक हो सकता है।
अनुच्छेद 363 के प्रमुख तत्व
न्यायिक हस्तक्षेप पर रोक: भारत सरकार और रियासतों के शासकों के बीच हुए संधियों या समझौतों से उत्पन्न होने वाले विवादों में न्यायालयों का हस्तक्षेप निषिद्ध है। यह केंद्र सरकार को इन मामलों में पूर्ण नियंत्रण देता है। उदाहरण: रियासतों के विलय से संबंधित विवाद।
राष्ट्रपति की शक्ति: राष्ट्रपति को इन विवादों को हल करने का अधिकार है। यह प्रशासनिक और राजनयिक समाधान को प्राथमिकता देता है। उदाहरण: प्राइवी पर्स से संबंधित विवादों का समाधान।
न्यायिक समीक्षा की सीमा: अनुच्छेद 363 के तहत न्यायालयों का हस्तक्षेप सीमित है, लेकिन यदि कोई कार्य संवैधानिक सीमाओं से बाहर हो, तो न्यायिक समीक्षा संभव है। उदाहरण: मधव राव सिंधिया बनाम भारत संघ (1971)।
महत्व: राष्ट्रीय एकीकरण: रियासतों के विलय को सुगम बनाना। संवैधानिक शासन: ऐतिहासिक समझौतों की पवित्रता। प्रशासनिक समाधान: केंद्र द्वारा विवादों का निपटारा। न्यायिक संतुलन: सीमित समीक्षा की संभावना।
प्रमुख विशेषताएँ: रोक: न्यायिक हस्तक्षेप। शक्ति: राष्ट्रपति का समाधान। लक्ष्य: संधियों का सम्मान। निगरानी: सीमित न्यायिक समीक्षा।
ऐतिहासिक उदाहरण: 1947-48: रियासतों के विलय संधियाँ। 1971: मधव राव सिंधिया मामले में प्राइवी पर्स पर विवाद। 2025 स्थिति: सीमित प्रासंगिकता, लेकिन ऐतिहासिक महत्व।
संबंधित प्रावधान: अनुच्छेद 131: राज्यों और केंद्र के बीच विवाद। अनुच्छेद 356: राष्ट्रपति शासन। 26वां संशोधन: विशेषाधिकारों का अंत।
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