Article 291 of the Indian Constitution
jp Singh
2025-07-05 14:45:10
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भारतीय संविधान का अनुच्छेद 291(निरसित)
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 291(निरसित)
अनुच्छेद 291 भारतीय संविधान के भाग XII(वित्त, संपत्ति, संविदाएँ और वाद) के अध्याय I(वित्त) में शामिल था। यह रियासतों के शासकों को निजी पर्स(Privy Purse) से संबंधित था। यह प्रावधान पूर्व रियासती शासकों को उनके विशेषाधिकारों और वित्तीय भत्तों(निजी पर्स) के भुगतान की गारंटी देता था, जो भारत के स्वतंत्रता के बाद रियासतों के एकीकरण के समय किए गए समझौतों का हिस्सा था। हालांकि, यह अनुच्छेद 26वें संवैधानिक संशोधन(1971) द्वारा निरसित कर दिया गया।
(निरसन से पहले) "किसी रियासत के शासक को, जिसने भारत के साथ विलय समझौता किया था, उस समझौते के तहत निजी पर्स की राशि का भुगतान भारत की संगठित निधि से किया जाएगा, और यह राशि करों से मुक्त होगी।"
उद्देश्य: अनुच्छेद 291 का उद्देश्य स्वतंत्रता के समय रियासतों के शासकों के साथ किए गए विलय समझौतों(Instruments of Accession) के तहत उन्हें निजी पर्स(वित्तीय भत्ता) प्रदान करना था। यह भत्ता रियासतों के शासकों को उनके विशेषाधिकारों और जीवनयापन के लिए दिया जाता था, क्योंकि उन्होंने अपनी रियासतों को भारत में विलय कर दिया था। इसका लक्ष्य रियासतों का सुगम एकीकरण, संवैधानिक प्रतिबद्धताओं का सम्मान, और संघीय ढांचे में एकता सुनिश्चित करना था।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: संवैधानिक ढांचा: अनुच्छेद 291 संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा था, जो 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। यह स्वतंत्रता के समय रियासतों के साथ किए गए समझौतों से प्रेरित था, जिनमें शासकों को निजी पर्स देने का वादा किया गया था। भारतीय संदर्भ: 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद, 500 से अधिक रियासतों को भारत में एकीकृत किया गया। शासकों ने अपनी सत्ता छोड़ दी, और बदले में उन्हें निजी पर्स और विशेषाधिकार दिए गए।
1960 के दशक तक, निजी पर्स की प्रासंगिकता पर सवाल उठने लगे, क्योंकि यह गणतांत्रिक समानता के सिद्धांतों के खिलाफ माना गया। निरसन(1971): 26वें संवैधानिक संशोधन(1971) ने अनुच्छेद 291 को निरसित कर दिया और निजी पर्स को समाप्त कर दिया। यह निर्णय समानता(अनुच्छेद 14) और गणतांत्रिक सिद्धांतों को बढ़ावा देने के लिए लिया गया।
अनुच्छेद 291 के प्रमुख तत्व(निरसन से पहले)
निजी पर्स का भुगतान: रियासतों के शासकों को उनके विलय समझौतों के तहत निश्चित राशि का भुगतान भारत की संगठित निधि से किया जाता था। यह राशि करों से मुक्त थी। उदाहरण: 1950 के दशक में, मैसूर, ग्वालियर, और जयपुर के शासकों को निजी पर्स दिया गया।
कर छूट: निजी पर्स की राशि पर कोई कर(जैसे, आयकर) नहीं लगाया जाता था। यह शासकों को वित्तीय सुरक्षा प्रदान करता था।
निरसन का कारण: सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन: 1960 के दशक में, निजी पर्स को सामंती व्यवस्था का अवशेष माना गया, जो संविधान के समानता के सिद्धांत(अनुच्छेद 14) के खिलाफ था।
संसदीय और जन दबाव: जनता और नेताओं(विशेष रूप से इंदिरा गांधी सरकार) ने निजी पर्स को समाप्त करने की मांग की।
न्यायिक चुनौतियाँ: मधवराव सिंधिया बनाम भारत सरकार(1971): उच्चतम न्यायालय ने शुरू में निजी पर्स की समाप्ति को चुनौती दी, लेकिन 26वें संशोधन ने इसे संवैधानिक रूप से समाप्त कर दिया।
महत्व(ऐतिहासिक): रियासतों का एकीकरण: भारत की एकता के लिए महत्वपूर्ण। संवैधानिक प्रतिबद्धता: विलय समझौतों का सम्मान। सामंती व्यवस्था का अंत: निरसन ने गणतांत्रिक समानता को बढ़ावा दिया। न्यायिक समीक्षा: निजी पर्स की वैधता पर कोर्ट की निगरानी।
ऐतिहासिक उदाहरण: 1950-1960 के दशक: हैदराबाद, मैसूर, और जम्मू-कश्मीर के शासकों को निजी पर्स। 1971: 26वें संशोधन द्वारा निजी पर्स समाप्त। 2025 स्थिति: अनुच्छेद 291 अब अप्रासंगिक, क्योंकि यह निरसित है।
चुनौतियाँ और विवाद(निरसन से पहले): राजनीतिक विवाद: शासकों और सरकार के बीच निजी पर्स की राशि पर असहमति। सामाजिक असमानता: निजी पर्स को सामंती विशेषाधिकार माना गया। न्यायिक समीक्षा: निरसन की वैधता पर कोर्ट की जाँच।
संबंधित प्रावधान: अनुच्छेद 266: संगठित निधि। अनुच्छेद 280: वित्त आयोग। अनुच्छेद 290: व्यय समायोजन। अनुच्छेद 363A: शासकों के विशेषाधिकारों का अंत।
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