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Article 255 of the Indian Constitution
jp Singh 2025-07-05 10:42:35
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भारतीय संविधान का अनुच्छेद 255

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 255
अनुच्छेद 255 भारतीय संविधान के भाग XI(केंद्र और राज्यों के बीच विधायी संबंध) में आता है। यह केंद्र और राज्यों द्वारा बनाई गई विधियों के लिए कुछ आवश्यकताओं का अनुपालन(Requirements as to recommendations and previous sanctions to be regarded as matters of procedure only) से संबंधित है। यह प्रावधान यह सुनिश्चित करता है कि कुछ विधियों के लिए आवश्यक पूर्व स्वीकृति या सिफारिश(जैसे, राज्यपाल या राष्ट्रपति की) के अभाव में विधि को केवल प्रक्रियात्मक आधार पर अमान्य नहीं किया जाएगा। यह केंद्र और राज्यों के बीच विधायी प्रक्रिया में लचीलापन प्रदान करता है।
"कोई विधि, जो संसद या किसी राज्य के विधानमंडल द्वारा बनाई गई हो, केवल इस आधार पर अमान्य नहीं होगी कि उसमें इस संविधान द्वारा आवश्यक किसी सिफारिश या पूर्व स्वीकृति(जैसे, राज्यपाल, राष्ट्रपति, या अन्य प्राधिकारी की) का अभाव है, बशर्ते ऐसी सिफारिश या स्वीकृति बाद में प्राप्त कर ली जाए।"
उद्देश्य: अनुच्छेद 255 यह सुनिश्चित करता है कि यदि कोई विधि बनाते समय पूर्व स्वीकृति या सिफारिश(जैसे, राष्ट्रपति या राज्यपाल की) की आवश्यकता पूरी नहीं की गई हो, तो वह विधि केवल प्रक्रियात्मक आधार पर अमान्य नहीं होगी, बशर्ते बाद में ऐसी स्वीकृति प्राप्त कर ली जाए। इसका लक्ष्य संघीय ढांचे में विधायी प्रक्रिया को सरल बनाना और प्रक्रियात्मक त्रुटियों के कारण विधियों को अमान्य होने से रोकना है। यह केंद्र और राज्यों के बीच प्रशासनिक समन्वय और संवैधानिक लचीलापन सुनिश्चित करता है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: संवैधानिक ढांचा: अनुच्छेद 255 संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है, जो 1950 में लागू हुआ। यह भारत सरकार अधिनियम, 1935 से प्रेरित है, जिसमें प्रक्रियात्मक स्वीकृतियों को लचीला बनाने के प्रावधान थे। भारतीय संदर्भ: भारत के संघीय ढांचे में केंद्र और राज्यों को कुछ विधियों के लिए राष्ट्रपति या राज्यपाल की स्वीकृति की आवश्यकता होती है। यह प्रावधान प्रक्रियात्मक त्रुटियों को ठीक करने की अनुमति देता है। प्रासंगिकता: यह प्रावधान विधायी प्रक्रिया को सुचारू बनाता है और अनावश्यक कानूनी विवादों को रोकता है।
अनुच्छेद 255 के प्रमुख तत्व
प्रक्रियात्मक आवश्यकताएँ: कुछ विधियों के लिए संविधान में पूर्व स्वीकृति या सिफारिश की आवश्यकता होती है, जैसे: राष्ट्रपति की स्वीकृति: अनुच्छेद 254(2) के तहत समवर्ती सूची की राज्य विधियों के लिए। राज्यपाल की सिफारिश: कुछ विधियों के लिए(जैसे, वित्त विधेयक, अनुच्छेद 207)। यदि ऐसी स्वीकृति या सिफारिश विधि पारित होने से पहले नहीं ली गई, तो विधि केवल इस आधार पर अमान्य नहीं होगी। उदाहरण: 2025 में, यदि कोई राज्य विधानमंडल समवर्ती सूची पर विधि बनाता है और राष्ट्रपति की स्वीकृति पहले नहीं लेता, लेकिन बाद में स्वीकृति प्राप्त कर लेता है, तो विधि मान्य होगी।
बाद में स्वीकृति: विधि की वैधता को बनाए रखने के लिए बाद में स्वीकृति प्राप्त की जा सकती है। यह प्रक्रियात्मक लचीलापन सुनिश्चित करता है। उदाहरण: 2025 में, एक राज्य की शिक्षा नीति(समवर्ती सूची) पर विधि को बाद में राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर मान्य किया गया।
महत्व: प्रक्रियात्मक लचीलापन: प्रक्रियात्मक त्रुटियों के कारण विधियों का अमान्य होना रुकता है। संघीय समन्वय: केंद्र और राज्यों के बीच प्रशासनिक सहयोग। न्यायिक समीक्षा: कोर्ट केवल प्रक्रियात्मक आधार पर विधियों को अमान्य नहीं करते। संवैधानिक स्थिरता: विधायी प्रक्रिया में निरंतरता।
प्रमुख विशेषताएँ: पूर्व स्वीकृति: प्रक्रियात्मक आवश्यकता। बाद में स्वीकृति: वैधता की गारंटी। संघीय ढांचा: केंद्र-राज्य समन्वय। लचीलापन: प्रक्रियात्मक त्रुटियों का समाधान।
ऐतिहासिक उदाहरण: 1950 के दशक: समवर्ती सूची पर राज्य विधियों को बाद में राष्ट्रपति की स्वीकृति मिली। 2010 के दशक: शिक्षा और श्रम नीतियों पर राज्यों की विधियों को स्वीकृति। 2025 स्थिति: डिजिटल युग में डिजिटल शिक्षा और स्वास्थ्य नीतियों पर राज्यों की विधियों को बाद में स्वीकृति।
चुनौतियाँ और विवाद: केंद्र-राज्य तनाव: राष्ट्रपति की स्वीकृति प्रक्रिया पर राज्यों की आपत्ति। पारदर्शिता: स्वीकृति प्रक्रिया में जवाबदेही की कमी। न्यायिक समीक्षा: स्वीकृति की वैधता और प्रक्रियात्मक अनुपालन पर कोर्ट की जाँच।
संबंधित प्रावधान: अनुच्छेद 254: समवर्ती सूची पर असंगति। अनुच्छेद 246: विधायी शक्तियों का बंटवारा। अनुच्छेद 200: राज्यपाल की स्वीकृति। सातवीं अनुसूची: समवर्ती सूची।
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