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Article 196 of the Indian Constitution
jp Singh 2025-07-04 10:32:50
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भारतीय संविधान का अनुच्छेद 196

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 196
अनुच्छेद 196 भारतीय संविधान के भाग VI(राज्य) के अंतर्गत अध्याय III(राज्य का विधानमंडल) में आता है। यह विधानमंडल में विधेयकों के प्रस्तुति के लिए उपबंध(Provisions as to introduction and passing of Bills) से संबंधित है। यह प्रावधान राज्य विधानमंडल(विधानसभा और, यदि लागू हो, विधान परिषद) में विधेयकों को प्रस्तुत करने, पारित करने, और उनकी प्रक्रिया को नियंत्रित करता है।
"(1) इस संविधान में अन्यथा उपबंधित के सिवाय, कोई विधेयक तब तक पारित नहीं माना जाएगा जब तक कि वह उस विधानमंडल के प्रत्येक सदन द्वारा, यदि वह द्विसदनीय हो, सहमति से पारित न हो जाए और उस पर राज्यपाल की सहमति प्राप्त न हो जाए।
(2) जब कोई विधेयक किसी राज्य के विधानमंडल की विधानसभा द्वारा पारित कर दिया जाता है, तब:
(क) यदि उस राज्य में विधान परिषद हो, तो वह विधेयक उस विधान परिषद को प्रेषित किया जाएगा; और
(ख) यदि उस राज्य में विधान परिषद न हो, तो वह विधेयक राज्यपाल की सहमति के लिए प्रस्तुत किया जाएगा।
(3) जब कोई विधेयक विधान परिषद को प्रेषित किया जाता है, तब वह विधान परिषद:
(क) उस विधेयक को सहमति दे सकती है; या
(ख) उस विधेयक को असहमति दे सकती है; या
(ग) उस विधेयक को तीन महीने की अवधि के भीतर, या यदि विधेयक को विधानसभा द्वारा फिर से पारित करके प्रेषित किया गया हो तो एक महीने की अवधि के भीतर, संशोधनों सहित या बिना संशोधनों के विधानसभा को वापस कर सकती है, और यदि वह विधेयक विधान परिषद द्वारा संशोधनों सहित वापस किया जाता है, तो विधानसभा उन संशोधनों पर विचार करेगी।
(4) यदि विधानसभा, विधान परिषद द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को स्वीकार कर लेती है, तो वह विधेयक उसी रूप में पारित माना जाएगा, जिसमें वह संशोधनों सहित पारित हुआ।
(5) यदि विधानसभा, विधान परिषद द्वारा प्रस्तावित संशोधनों को स्वीकार नहीं करती है, या यदि विधान परिषद ने विधेयक को असहमति दे दी है, या यदि वह तीन महीने की अवधि के भीतर विधेयक को पारित नहीं करती है, तो विधानसभा उस विधेयक को फिर से पारित कर सकती है, और यदि वह ऐसा करती है, तो वह विधेयक राज्यपाल की सहमति के लिए प्रस्तुत किया जाएगा।
(6) इस अनुच्छेद में कोई बात किसी विधान परिषद की उस शक्ति को प्रभावित नहीं करेगी जो किसी विधेयक को, जो उसे प्रेषित किया गया हो, संशोधन प्रस्तावित करने की है।"
उद्देश्य: अनुच्छेद 196 राज्य विधानमंडल में विधेयकों को प्रस्तुत करने, विचार करने, और पारित करने की प्रक्रिया को परिभाषित करता है। यह सुनिश्चित करता है कि विधेयक पारित करने की प्रक्रिया व्यवस्थित, पारदर्शी, और संवैधानिक हो। इसका लक्ष्य लोकतांत्रिक शासन, संवैधानिक जवाबदेही, और संघीय ढांचे में विधानमंडल की स्वायत्तता और कार्यकुशलता को बनाए रखना है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: संवैधानिक ढांचा: यह प्रावधान भारत सरकार अधिनियम, 1935 से प्रेरित है, जो प्रांतीय विधानमंडलों में विधेयक पारित करने की प्रक्रिया को नियंत्रित करता था। यह ब्रिटिश संसदीय प्रणाली में हाउस ऑफ कॉमन्स और हाउस ऑफ लॉर्ड्स की विधायी प्रक्रिया को दर्शाता है।
भारतीय संदर्भ: संविधान लागू होने पर, विधानमंडल की विधायी प्रक्रिया को व्यवस्थित करने के लिए यह प्रावधान बनाया गया, जो केंद्र में अनुच्छेद 107(संसद के लिए) के समानांतर है। प्रासंगिकता: यह प्रावधान द्विसदनीय विधानमंडलों में विधानसभा और विधान परिषद के बीच समन्वय सुनिश्चित करता है।
अनुच्छेद 196 के प्रमुख तत्व
खंड(1): विधेयक पारित करने की शर्त: कोई विधेयक तब तक पारित नहीं माना जाएगा जब तक: वह द्विसदनीय विधानमंडल के दोनों सदनों(विधानसभा और विधान परिषद) द्वारा सहमति से पारित न हो। उस पर राज्यपाल की सहमति प्राप्त न हो। उदाहरण: 2025 में, उत्तर प्रदेश में एक विधेयक को दोनों सदनों और राज्यपाल की सहमति के बाद कानून बनाया गया।
खंड(2): विधानसभा द्वारा पारित विधेयक: यदि विधानसभा विधेयक पारित करती है: (क) यदि विधान परिषद हो, तो विधेयक उसे प्रेषित किया जाएगा। (ख) यदि विधान परिषद न हो, तो विधेयक सीधे राज्यपाल को भेजा जाएगा। उदाहरण: एकसदनीय राज्य जैसे हरियाणा में विधेयक सीधे राज्यपाल को भेजा गया।
खंड(3): विधान परिषद की भूमिका: विधान परिषद निम्नलिखित कर सकती है: (क) विधेयक को सहमति दे। (ख) विधेयक को असहमति दे। (ग) विधेयक को तीन महीने(या फिर से प्रेषित होने पर एक महीने) के भीतर संशोधनों सहित या बिना संशोधनों के विधानसभा को वापस करे। विधानसभा को संशोधनों पर विचार करना होगा। उदाहरण: विधान परिषद ने संशोधन प्रस्तावित किए, जिन्हें विधानसभा ने विचार किया।
खंड(4): संशोधनों की स्वीकृति: यदि विधानसभा विधान परिषद के संशोधनों को स्वीकार करती है, तो विधेयक संशोधित रूप में पारित माना जाएगा। उदाहरण: विधानसभा ने संशोधन स्वीकार कर विधेयक को अंतिम रूप दिया।
खंड(5): असहमति या विलंब: यदि विधानसभा संशोधनों को स्वीकार नहीं करती, या विधान परिषद असहमति देती है, या तीन महीने में विधेयक पारित नहीं करती, तो विधानसभा उसे दोबारा पारित कर सकती है। इसके बाद विधेयक राज्यपाल को भेजा जाएगा। उदाहरण: विधान परिषद की असहमति के बाद विधानसभा ने विधेयक दोबारा पारित किया।
खंड(6): विधान परिषद की शक्ति: यह प्रावधान विधान परिषद की संशोधन प्रस्तावित करने की शक्ति को प्रभावित नहीं करता। उदाहरण: विधान परिषद ने विधेयक में सुधार के लिए संशोधन सुझाए।
महत्व: लोकतांत्रिक प्रक्रिया: विधेयक पारित करने में पारदर्शिता। संघीय ढांचा: विधानसभा और विधान परिषद के बीच समन्वय। निरंतरता: विधान परिषद के विलंब से रुकावट नहीं। स्वायत्तता: विधानमंडल की विधायी शक्ति।
प्रमुख विशेषताएँ: द्विसदनीय प्रक्रिया: दोनों सदनों की सहमति। राज्यपाल: अंतिम सहमति। संशोधन: विधान परिषद की शक्ति। पुनः पारित: विधानसभा की प्राथमिकता।
ऐतिहासिक उदाहरण: 1950 के बाद: कई विधेयक विधान परिषद के संशोधनों के साथ पारित। 1990 के दशक: विधान परिषद की असहमति पर विवाद। 2025 स्थिति: डिजिटल युग में विधेयक प्रक्रिया का डिजिटल रिकॉर्ड।
चुनौतियाँ और विवाद: विधान परिषद की भूमिका: विलंब या असहमति पर आलोचना। राज्यपाल का हस्तक्षेप: सहमति में देरी पर विवाद।न्यायिक समीक्षा: विधायी प्रक्रिया की वैधता पर कोर्ट की जाँच।
संबंधित प्रावधान: अनुच्छेद 107: संसद के लिए विधेयक। अनुच्छेद 197: धन विधेयकों पर विशेष उपबंध। अनुच्छेद 200: राज्यपाल की सहमति।
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