Article 134 of the Indian Constitution
jp Singh
2025-07-02 13:26:54
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भारतीय संविधान का अनुच्छेद 134
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 134
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 134
अनुच्छेद 134 का पाठ संविधान के मूल पाठ (हिंदी अनुवाद) के अनुसार
"(1) किसी उच्च न्यायालय द्वारा फौजदारी कार्यवाही में दिए गए किसी निर्णय, अंतिम आदेश या दंडादेश से सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है—
(क) यदि उच्च न्यायालय ने अपील में, निचली अदालत द्वारा बरी किए गए व्यक्ति को दोषी ठहराया हो और उसे मृत्युदंड या कारावास (सात वर्ष या अधिक के लिए) या जुर्माना देने का दंड दिया हो; या
(ख) यदि उच्च न्यायालय ने अपने अधीनस्थ किसी न्यायालय से अपने पास विचार के लिए कोई मामला वापस लिया हो और उस मामले में किसी व्यक्ति को दोषी ठहराकर मृत्युदंड या कारावास (सात वर्ष या अधिक के लिए) या जुर्माना देने का दंड दिया हो; या
(ग) यदि उच्च न्यायालय यह प्रमाणित करता है कि वह मामला सर्वोच्च न्यायालय में अपील के लिए उपयुक्त है।
(2) संसद, विधि द्वारा, सर्वोच्च न्यायालय को और अधिक फौजदारी कार्यवाहियों में अपील की सुनवाई का अधिकार प्रदान कर सकती है।"
विस्तृत विश्लेषण
1. उद्देश्य: अनुच्छेद 134 सर्वोच्च न्यायालय को फौजदारी मामलों में उच्च न्यायालयों के निर्णयों, अंतिम आदेशों, या दंडादेशों के खिलाफ अपीलीय अधिकारिता प्रदान करता है। यह सुनिश्चित करता है कि गंभीर फौजदारी मामलों में, विशेष रूप से जहाँ मृत्युदंड या लंबी कारावास की सजा दी गई हो, सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समीक्षा हो सके। इसका लक्ष्य न्यायिक निष्पक्षता, कानूनी एकरूपता, और न्यायपालिका की प्रभुता को बनाए रखना है।
2. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: संवैधानिक ढांचा: यह प्रावधान ब्रिटिश सामान्य कानून और अन्य लोकतांत्रिक प्रणालियों से प्रेरित है, जहाँ सर्वोच्च न्यायालय गंभीर फौजदारी मामलों में अपील सुनता है। भारतीय संदर्भ: भारत में, फौजदारी मामले (जैसे हत्या, बलात्कार, या आतंकवाद) गंभीर सामाजिक प्रभाव डालते हैं। अनुच्छेद 134 इनमें निष्पक्षता सुनिश्चित करता है। प्रासंगिकता: यह प्रावधान व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों (विशेष रूप से अनुच्छेद 21) की रक्षा करता है।
3. अनुच्छेद 134 के प्रमुख तत्व: खंड (1): अपील की शर्तें सर्वोच्च न्यायालय में फौजदारी मामलों में अपील निम्नलिखित शर्तों पर हो सकती है: (क): यदि उच्च न्यायालय ने अपील में बरी को दोषी ठहराया हो और मृत्युदंड, आजीवन कारावास, या 7 वर्ष या अधिक का कारावास दिया हो। (ख): यदि उच्च न्यायालय ने अपने अधीनस्थ न्यायालय से मामला वापस लिया हो और आरोपी को दोषी ठहराकर मृत्युदंड, आजीवन कारावास, या 7 वर्ष या अधिक का कारावास दिया हो। (ग): यदि उच्च न्यायालय प्रमाणित करता है कि मामला सर्वोच्च न्यायालय में अपील के लिए उपयुक्त है। उदाहरण: हत्या के मामले में बरी को उच्च न्यायालय द्वारा दोषी ठहराया गया और मृत्युदंड दिया गया।
खंड (2): संसद की शक्ति संसद, विधि द्वारा, सर्वोच्च न्यायालय को अन्य फौजदारी मामलों में अपील सुनने की अतिरिक्त शक्ति प्रदान कर सकती है। उदाहरण: अभी तक ऐसी कोई विशेष विधि लागू नहीं।
4. महत्व: न्यायिक निष्पक्षता: गंभीर सजाओं की समीक्षा। मौलिक अधिकारों की रक्षा: अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता) की गारंटी। न्यायपालिका की स्वतंत्रता: सर्वोच्च न्यायालय का अंतिम प्राधिकारी। कानूनी एकरूपता: फौजदारी कानून में स्थिरता।
5. प्रमुख विशेषताएँ: अपीलीय अधिकारिता: फौजदारी मामले। गंभीर सजा: मृत्युदंड, आजीवन कारावास, 7+ वर्ष। उच्च न्यायालय का प्रमाणन: उपयुक्तता। संसद की शक्ति: अतिरिक्त अपील।
6. ऐतिहासिक उदाहरण: जंपल बनाम हरियाणा राज्य (1972): बरी को दोषी ठहराने पर अपील। निर्भया मामला (2017): मृत्युदंड की समीक्षा। 2025 स्थिति: आतंकवाद और गंभीर अपराधों में अपीलें।
7. चुनौतियाँ और विवाद: सीमित दायरा: केवल गंभीर सजा या प्रमाणन पर अपील। प्रमाणन में असंगति: उच्च न्यायालयों की भिन्न व्याख्या। न्यायिक समय: अपीलों से कार्यभार की चुनौती।
8. न्यायिक व्याख्या: जंपल बनाम हरियाणा (1972): अपील के दायरे की व्याख्या। केशवानंद भारती (1973): न्यायपालिका की स्वतंत्रता।
9. वर्तमान संदर्भ (2025): वर्तमान स्थिति: लोकसभा: अध्यक्ष ओम बिरला। राज्यसभा: सभापति जगदीप धनखड़। राष्ट्रपति: द्रौपदी मुर्मू। CJI: डी.वाई. चंद्रचूड़। 2025 में, आतंकवाद और संगठित अपराध मामलों में अपीलें। प्रासंगिकता: डिजिटल संसद पहल के तहत अपीलों का डिजिटल रिकॉर्ड। फौजदारी न्याय में निष्पक्षता पर जोर। राजनीतिक परिदृश्य: NDA और INDIA गठबंधन के बीच फौजदारी सुधारों पर बहस।
10. संबंधित प्रावधान: अनुच्छेद 132: संवैधानिक अपील। अनुच्छेद 133: दीवानी अपील। अनुच्छेद 136: विशेष अनुमति याचिका।
11. विशेष तथ्य: निर्भया (2017): मृत्युदंड समीक्षा। 2025 मामले: आतंकवाद, अपराध। गंभीर सजा: अपील का आधार। न्यायपालिका की स्वतंत्रता: मूल ढांचा।
Conclusion
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