Article 107 of the Indian Constitution
jp Singh
2025-07-01 14:01:15
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भारतीय संविधान का अनुच्छेद 107
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 107
अनुच्छेद 107 का सार अनुच्छेद 107 भारतीय संविधान के भाग V (संघ) के अंतर्गत आता है। यह अनुच्छेद संसद में विधायी प्रक्रिया और विधेयकों (Bills) के प्रस्तुति से संबंधित प्रावधानों को निर्धारित करता है। इसका उद्देश्य संसद की विधायी शक्तियों को व्यवस्थित करना और विधेयकों के प्रस्तुति, पारित होने, और कानून बनने की प्रक्रिया को स्पष्ट करना है।
मुख्य प्रावधान
अनुच्छेद 107 में निम्नलिखित प्रावधान शामिल हैं
विधेयकों का प्रस्तुति: संसद के किसी भी सदन (लोकसभा या राज्यसभा) में विधेयक प्रस्तुत किया जा सकता है, सिवाय धन विधेयक (Money Bill) के, जो केवल लोकसभा में प्रस्तुत किया जा सकता है।
सदनों में पारित होना: कोई विधेयक तब तक कानून नहीं बन सकता, जब तक कि वह संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) द्वारा पारित न हो जाए, और राष्ट्रपति की सहमति न प्राप्त हो जाए।
सहमति की प्रक्रिया: विधेयक के दोनों सदनों द्वारा पारित होने के बाद, उसे राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा। राष्ट्रपति या तो उसकी सहमति दे सकता है, उसे रोक सकता है, या उसे पुनर्विचार के लिए वापस भेज सकता है (सिवाय धन विधेयक के)।
लंबित विधेयक: यदि कोई विधेयक किसी एक सदन में पारित हो गया हो, लेकिन दूसरे सदन में लंबित हो, और लोकसभा का विघटन हो जाए, तो वह विधेयक समाप्त (lapse) हो जाएगा। हालांकि, यदि विधेयक दोनों सदनों द्वारा पारित हो चुका हो और राष्ट्रपति के पास सहमति के लिए लंबित हो, तो लोकसभा का विघटन उस पर प्रभाव नहीं डालेगा।
विशेष प्रावधान: धन विधेयक और कुछ अन्य विशेष विधेयकों (जैसे संवैधानिक संशोधन विधेयक) के लिए अलग प्रक्रियाएँ लागू होती हैं, जो अनुच्छेद 107 के सामान्य प्रावधानों से प्रभावित हो सकती हैं।
उद्देश्य: संसद की विधायी प्रक्रिया को व्यवस्थित और पारदर्शी बनाना। दोनों सदनों और राष्ट्रपति के बीच संतुलन सुनिश्चित करना। विधेयकों के पारित होने और कानून बनने की प्रक्रिया को स्पष्ट करना। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत करना और संसद की स्वायत्तता को बनाए रखना।
अनुच्छेद 107 की विशेषताएँ
द्विसदनीय प्रणाली: यह संसद की द्विसदनीय संरचना (लोकसभा और राज्यसभा) को रेखांकित करता है और दोनों सदनों की सहमति की आवश्यकता पर जोर देता है।
राष्ट्रपति की भूमिका: यह राष्ट्रपति को विधायी प्रक्रिया में एक संवैधानिक संतुलन प्रदान करता है, जो विधेयकों की सहमति, रोक, या पुनर्विचार के लिए भेजने का अधिकार रखता है।
धन विधेयक पर विशेष प्रावधान: धन विधेयक के लिए लोकसभा की प्राथमिकता को स्थापित करता है, जो राज्यसभा की शक्तियों को सीमित करता है।
लोकसभा के विघटन का प्रभाव: यह स्पष्ट करता है कि लोकसभा के विघटन का विधेयकों पर प्रभाव सीमित है, विशेष रूप से राष्ट्रपति के पास लंबित विधेयकों पर।
न्यायिक समीक्षा की सीमा: अनुच्छेद 122 के साथ मिलकर यह संसद की विधायी प्रक्रिया की सीमित न्यायिक समीक्षा सुनिश्चित करता है।
अनुच्छेद 107 का महत्व
लोकतांत्रिक प्रक्रिया: यह विधायी प्रक्रिया को लोकतांत्रिक और पारदर्शी बनाता है, जिसमें दोनों सदनों और राष्ट्रपति की भागीदारी होती है।
संवैधानिक संतुलन: यह विधायिका (संसद) और कार्यपालिका (राष्ट्रपति) के बीच संतुलन बनाए रखता है।
संसद की स्वायत्तता: यह संसद को विधेयक प्रस्तुत करने और पारित करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है।
कानून निर्माण की स्पष्टता: यह विधेयकों के कानून बनने की प्रक्रिया को स्पष्ट और व्यवस्थित करता है।
संबंधित महत्वपूर्ण मुकदमे
केसरी नंदन बनाम भारत सरकार (1975)
मामला: इस मामले में एक विधेयक की पारित होने की प्रक्रिया को अनुच्छेद 107 के तहत चुनौती दी गई। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि विधेयक को दोनों सदनों में उचित प्रक्रिया के बिना पारित किया गया।
निर्णय: उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 107 विधायी प्रक्रिया को व्यवस्थित करता है, और संसद की कार्यवाही की वैधता अनुच्छेद 122 के तहत सीमित न्यायिक समीक्षा के अधीन है। कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी, क्योंकि कोई स्पष्ट संवैधानिक उल्लंघन नहीं था।
महत्व: इसने अनुच्छेद 107 को विधायी प्रक्रिया की वैधता सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण माना और संसद की स्वायत्तता को रेखांकित किया।
रामदास अठावले बनाम भारत सरकार (2010)
मामला: इस मामले में एक विधेयक के पारित होने की प्रक्रिया को चुनौती दी गई, यह दावा करते हुए कि अनुच्छेद 107 के तहत उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया, जैसे गणपूर्ति की कमी।
निर्णय: उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 107 और 122 के तहत संसद की कार्यवाही की प्रक्रियात्मक वैधता पर सवाल उठाना सीमित है, जब तक कि यह स्पष्ट रूप से संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन न हो। कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी।
महत्व: इसने अनुच्छेद 107 को विधायी प्रक्रिया की स्वायत्तता और वैधता के लिए प्रासंगिक माना।
संसद बनाम चारु चंद्र (2000)
मामला: इस मामले में एक विधेयक को राष्ट्रपति द्वारा पुनर्विचार के लिए वापस भेजने की प्रक्रिया को अनुच्छेद 107 के तहत चुनौती दी गई। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि राष्ट्रपति का निर्णय अनुचित था।
निर्णय: उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 107 के तहत राष्ट्रपति को विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस भेजने का अधिकार है, और यह निर्णय संवैधानिक प्रक्रिया का हिस्सा है। कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी।
महत्व: इसने अनुच्छेद 107 को राष्ट्रपति की भूमिका और विधायी प्रक्रिया में संतुलन के लिए महत्वपूर्ण माना।
महत्व: इसने अनुच्छेद 107 को राष्ट्रपति की भूमिका और विधायी प्रक्रिया में संतुलन के लिए महत्वपूर्ण माना।
मामला: इस मामले में एक विधेयक की पारित होने की प्रक्रिया को अनुच्छेद 107 (और समकक्ष अनुच्छेद 196) के तहत चुनौती दी गई। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि विधेयक को दोनों सदनों में उचित चर्चा के बिना पारित किया गया।
निर्णय: उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 107 और 122 (या 212) के तहत संसद और विधानमंडलों की कार्यवाही की प्रक्रियात्मक वैधता सीमित न्यायिक समीक्षा के अधीन है। कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी।
महत्व: इसने अनुच्छेद 107 को विधायी प्रक्रिया की स्वायत्तता के लिए महत्वपूर्ण माना।
सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन बनाम भारत सरकार (1998)
मामला: इस मामले में एक विधेयक की प्रस्तुति और पारित होने की प्रक्रिया को अनुच्छेद 107 के तहत चुनौती दी गई, यह दावा करते हुए कि यह प्रक्रिया संवैधानिक नहीं थी।
निर्णय: उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 107 विधायी प्रक्रिया को व्यवस्थित करता है, और संसद को विधेयक प्रस्तुत करने और पारित करने का पूर्ण अधिकार है। कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी।
महत्व: इसने अनुच्छेद 107 को संसद की विधायी शक्ति और स्वायत्तता के लिए प्रासंगिक माना।
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