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Article 64 of the Indian Constitution
jp Singh 2025-06-28 16:03:10
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भारतीय संविधान का अनुच्छेद 64

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 64
अनुच्छेद 64 भारतीय संविधान के भाग V (संघ) के अंतर्गत अध्याय I (कार्यपालिका) में आता है। यह उपराष्ट्रपति को राज्यसभा का पदेन सभापति (The Vice-President to be Ex-Officio Chairman of the Council of States) बनाने और उनकी भूमिका से संबंधित है। यह प्रावधान उपराष्ट्रपति को विधायी प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपता है।
अनुच्छेद 64 का पाठ
संविधान के मूल पाठ (हिंदी अनुवाद) के अनुसार: "उपराष्ट्रपति, राज्य सभा का पदेन सभापति होगा और वह उस सभा के सभापति के रूप में कोई अन्य लाभ का पद धारण नहीं करेगा।"
विस्तृत विवरण
1. उद्देश्य: अनुच्छेद 64 उपराष्ट्रपति को राज्यसभा का पदेन सभापति (Ex-Officio Chairman of the Council of States) नियुक्त करता है, जिससे वह संसद के उच्च सदन की कार्यवाही का संचालन कर सके। यह प्रावधान यह सुनिश्चित करता है कि उपराष्ट्रपति विधायी प्रक्रिया में एक निष्पक्ष और संवैधानिक भूमिका निभाए। लाभ का पद पर प्रतिबंध उपराष्ट्रपति की निष्पक्षता और स्वतंत्रता को बनाए रखता है।
2. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: संवैधानिक ढांचा: संविधान सभा ने उपराष्ट्रपति को राज्यसभा का सभापति बनाने का निर्णय लिया, ताकि वह संसद के उच्च सदन में राज्यों के हितों का प्रतिनिधित्व कर सके। यह भारत के संघीय ढांचे को दर्शाता है। प्रेरणा: यह प्रावधान अमेरिकी संविधान से प्रभावित है, जहाँ उपराष्ट्रपति सीनेट का सभापति होता है। हालांकि, भारत में उपराष्ट्रपति की भूमिका संसदीय प्रणाली और संवैधानिक ढांचे के अनुरूप है। संघीय संतुलन: राज्यसभा राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करती है, और उपराष्ट्रपति की सभापति की भूमिका इस संघीय संतुलन को मजबूत करती है।
3. अनुच्छेद 64 के प्रमुख बिंदु: अनुच्छेद 64 दो मुख्य पहलुओं को कवर करता है
(1) उपराष्ट्रपति का राज्यसभा का सभापति होना: उपराष्ट्रपति स्वतः (ex-officio) राज्यसभा का सभापति होता है। वह राज्यसभा की कार्यवाही का संचालन करता है, जिसमें शामिल हैं: सदन की बैठकों की अध्यक्षता करना। सदन में व्यवस्था बनाए रखना। चर्चाओं और मतदान की प्रक्रिया को नियंत्रित करना। निर्णायक मत (casting vote) देना, जब मतदान में समानता (tie) हो।
उदाहरण: 1991 में, उपराष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने राज्यसभा में एक महत्वपूर्ण विधेयक पर समानता की स्थिति में निर्णायक मत दिया। 2023 में, उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने राज्यसभा की कार्यवाही में निष्पक्षता बनाए रखने के लिए कई बार हस्तक्षेप किया। निष्पक्षता: सभापति के रूप में, उपराष्ट्रपति को राजनीतिक पक्षपात से मुक्त रहना होता है, जो उनकी संवैधानिक भूमिका का हिस्सा है।
(2) लाभ का पद पर प्रतिबंध: उपराष्ट्रपति किसी अन्य लाभ का पद (office of profit) को धारण नहीं कर सकता। लाभ का पद: यह कोई ऐसा पद है जो भारत सरकार, किसी राज्य सरकार, या उनके नियंत्रण में किसी स्थानीय/अन्य प्राधिकारी के अधीन हो और जिसमें वेतन, भत्ते, या अन्य आर्थिक लाभ हों। उदाहरण: सरकारी कर्मचारी, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के अधिकारी, या सरकारी नियंत्रण वाले संगठनों के पदाधिकारी।
उद्देश्य: यह प्रतिबंध उपराष्ट्रपति को सरकारी प्रभाव या हितों के टकराव से मुक्त रखता है, ताकि वह निष्पक्ष और संवैधानिक रूप से कार्य कर सके। तुलना: यह प्रतिबंध राष्ट्रपति के लिए अनुच्छेद 59(1) और उपराष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए अनुच्छेद 66(4) के समान है।
4. उपराष्ट्रपति की भूमिका और जिम्मेदारियाँ: राज्यसभा का संचालन: उपराष्ट्रपति राज्यसभा की कार्यवाही को सुचारु रूप से चलाने के लिए नियमों (Rules of Procedure and Conduct of Business in the Council of States) का पालन करता है। वह सदस्यों के प्रश्नों, प्रस्तावों, और विधेयकों पर चर्चा को नियंत्रित करता है। वह सदन में अनुशासन बनाए रखने के लिए सदस्यों को निलंबित या चेतावनी दे सकता है।
निर्णायक मत: जब राज्यसभा में मतदान में समानता होती है, तो उपराष्ट्रपति का निर्णायक मत महत्वपूर्ण होता है। यह मत आमतौर पर संवैधानिक और निष्पक्ष आधार पर दिया जाता है।
अन्य जिम्मेदारियाँ: उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में उनके कर्तव्यों का निर्वहन करता है (अनुच्छेद 65), जो अनुच्छेद 64 से परे उनकी भूमिका को दर्शाता है। वह विभिन्न समारोहों और राष्ट्रीय आयोजनों में भाग लेता है, जो उनके संवैधानिक पद की गरिमा को दर्शाता है।
5. महत्व: संघीय प्रतिनिधित्व: राज्यसभा राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करती है, और उपराष्ट्रपति की सभापति की भूमिका भारत के संघीय ढांचे को मजबूत करती है। निष्पक्षता: लाभ का पद पर प्रतिबंध और सभापति की निष्पक्ष भूमिका विधायी प्रक्रिया में विश्वास बनाए रखती है। संवैधानिक संतुलन: उपराष्ट्रपति की भूमिका कार्यपालिका (राष्ट्रपति के कर्तव्यों का निर्वहन) और विधायिका (राज्यसभा का सभापति) के बीच संतुलन बनाती है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया: उपराष्ट्रपति का सभापति के रूप में कार्य लोकतांत्रिक चर्चा और निर्णय लेने को बढ़ावा देता है।
6. चुनौतियाँ और विवाद: पक्षपात के आरोप: राज्यसभा के सभापति के रूप में, उपराष्ट्रपति को कभी-कभी पक्षपात के आरोपों का सामना करना पड़ता है, विशेष रूप से विवादास्पद विधेयकों या चर्चाओं के दौरान। उदाहरण: 2020 में, उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू पर कृषि विधेयकों की चर्चा में पक्षपात के आरोप लगे, हालांकि इन्हें संवैधानिक रूप से उचित ठहराया गया। सीमित शक्तियाँ: सभापति के रूप में उपराष्ट्रपति की शक्तियाँ नियमों और परंपराओं से बंधी होती हैं, जिससे उनकी भूमिका कभी-कभी प्रतीकात्मक लगती है।
राजनीतिक दबाव: यद्यपि उपराष्ट्रपति को निष्पक्ष रहना होता है, लेकिन उनके निर्वाचन में राजनीतिक गठजोड़ प्रभावी हो सकते हैं, जो उनकी कथित निष्पक्षता को प्रभावित कर सकता है। निर्णायक मत का विवाद: निर्णायक मत देने की स्थिति में उपराष्ट्रपति के फैसले पर बहस हो सकती है, विशेष रूप से यदि यह सरकार के पक्ष में हो।
7. न्यायिक व्याख्या: किहोतो होलोहान बनाम ज़चिल्हू (1992): दसवीं अनुसूची (दल-बदल कानून) से संबंधित मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यसभा के सभापति (उपराष्ट्रपति) की भूमिका की निष्पक्षता और उनके निर्णयों की सीमित न्यायिक समीक्षा पर चर्चा की। राजा राम पाल बनाम लोकसभा अध्यक्ष (2007): हालांकि यह लोकसभा से संबंधित था, इस मामले में संसदीय अध्यक्षों की भूमिका और निष्पक्षता पर टिप्पणियाँ उपराष्ट्रपति की सभापति की भूमिका पर भी लागू होती हैं। न्यायिक समीक्षा: उपराष्ट्रपति के सभापति के रूप में निर्णय सीमित रूप से न्यायिक समीक्षा के अधीन हो सकते हैं, विशेष रूप से यदि वे संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं।
8. वर्तमान संदर्भ (2025): वर्तमान उपराष्ट्रपति: जगदीप धनखड़, जो 11 अगस्त 2022 से उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति के रूप में कार्यरत हैं। प्रासंगिकता: 2025 में, उपराष्ट्रपति की सभापति की भूमिका महत्वपूर्ण है, क्योंकि राज्यसभा में कई महत्वपूर्ण विधेयक (जैसे, संवैधानिक संशोधन, आर्थिक सुधार) पर चर्चा हो रही है।
विवाद: धनखड़ की सभापति की भूमिका पर विपक्षी दलों ने कभी-कभी पक्षपात के आरोप लगाए हैं, विशेष रूप से विपक्षी नेताओं के निलंबन या चर्चा के समय आवंटन को लेकर। हालांकि, ये आरोप संवैधानिक नियमों के दायरे में हैं।
राजनीतिक परिदृश्य: मजबूत गठबंधन (जैसे, NDA) और विपक्षी गठजोड़ों के बीच तनाव के कारण, उपराष्ट्रपति की निष्पक्षता और संतुलन बनाए रखने की भूमिका और अधिक महत्वपूर्ण हो गई है।
9. संबंधित प्रावधान
अनुच्छेद 63: उपराष्ट्रपति के पद की स्थापना।
अनुच्छेद 65: राष्ट्रपति के कर्तव्यों का निर्वहन।
अनुच्छेद 66: उपराष्ट्रपति का निर्वाचन और योग्यता।
अनुच्छेद 67: उपराष्ट्रपति का कार्यकाल।
अनुच्छेद 89: राज्यसभा की कार्यवाही का संचालन।
10. विशेष तथ्य: पहला उपराष्ट्रपति: डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन (1952-1962), जिन्होंने राज्यसभा के सभापति के रूप में अपनी विद्वता और निष्पक्षता से इस पद की गरिमा बढ़ाई।
निर्णायक मत: उपराष्ट्रपति द्वारा निर्णायक मत का उपयोग दुर्लभ है, लेकिन यह महत्वपूर्ण विधायी फैसलों में प्रभावी हो सकता है।
उपराष्ट्रपति से राष्ट्रपति: कई उपराष्ट्रपति, जैसे वी.वी. गिरि, आर. वेंकटरमण, और शंकर दयाल शर्मा, बाद में राष्ट्रपति बने।
निष्पक्षता की परंपरा: उपराष्ट्रपति की सभापति की भूमिका में निष्पक्षता की परंपरा मजबूत है, जो भारत की लोकतांत्रिक परंपराओं को दर्शाती है।
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