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Telangana Movement
jp Singh 2025-05-28 13:35:49
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तेलंगाना आंदोलन

"तेलंगाना आंदोलन" कहकर तेलंगाना सशस्त्र विद्रोह (Telangana Armed Struggle) या तेलंगाना किसान विद्रोह (1946-51) हैं, जो हैदराबाद रियासत (वर्तमान तेलंगाना, भारत) में एक महत्वपूर्ण किसान और कम्युनिस्ट-प्रेरित आंदोलन था। यह आंदोलन निज़ाम शासन और जमींदारों के शोषण के खिलाफ था।
तेलंगाना सशस्त्र विद्रोह (1946-51): स्थान: हैदराबाद रियासत, विशेष रूप से नलगोंडा, वारंगल, और करीमनगर जिले (वर्तमान तेलंगाना)। समय: 1946 से 1951 तक। नेतृत्व: अखिल भारतीय किसान सभा और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI) के नेतृत्व में। प्रमुख नेता: रावी नारायण रेड्डी, चंद्र राजेश्वर राव, मखदूम मोहिउद्दीन, और पुचलपल्ली सुंदरैया। पृष्ठभूमि: हैदराबाद रियासत निज़ाम (मुस्लिम शासक) के अधीन थी, और यहाँ जमींदारी प्रथा (जागीरदारी) के तहत भारी शोषण होता था।
दोराला (जमींदार) और देसीपति (गाँव के मुखिया) ने किसानों और बटाईदारों पर भारी लगान और बेगारी थोपी। 1940 के दशक में आर्थिक संकट, 1943 के बंगाल अकाल का प्रभाव, और ब्रिटिश नीतियों ने किसानों की स्थिति को और खराब किया। कम्युनिस्ट पार्टी ने आंध्र महासभा के माध्यम से तेलंगाना के किसानों को संगठित किया। यह आंदोलन तेभागा आंदोलन (1946-47) से प्रेरित था, लेकिन यह अधिक सशस्त्र और हिंसक था।
कारण: जमींदारी शोषण: किसानों attente: - जमींदारों द्वारा भारी लगान और बेगारी: किसानों को अपनी फसल का आधा या अधिक हिस्सा देना पड़ता था, और बेदखली आम थी। वट्टू प्रथा: जबरन मजदूरी और यौन शोषण, विशेष रूप से नलगोंडा और वारंगल में। आर्थिक संकट: 1940 के दशक में खाद्य की कमी और महँगाई ने किसानों को भुखमरी के कगार पर ला दिया। निज़ाम की नीतियों ने किसानों और मजदूरों के लिए कोई राहत नहीं दी।
निज़ाम शासन का दमन: निज़ाम की सेना और रजाकार (निज़ाम के समर्थक सशस्त्र दस्ते) ने किसानों और आंदोलनकारियों पर अत्याचार किए। रजाकारों की हिंसा ने विद्रोह को और भड़काया। कम्युनिस्ट प्रेरणा: कम्युनिस्ट पार्टी ने किसानों को उनके अधिकारों के लिए लड़ने और सशस्त्र प्रतिरोध के लिए प्रेरित किया। "भूमि का मालिक वही जो जोते" का नारा लोकप्रिय हुआ। घटनाक्रम: शुरुआत (1946): 4 जुलाई 1946 को नलगोंडा के कडम गाँव में एक किसान की हत्या के बाद विद्रोह शुरू हुआ। यह घटना कम्युनिस्ट नेताओं द्वारा किसानों को संगठित करने का उत्प्रेरक बनी। किसानों ने जमींदारों और रजाकारों के खिलाफ हथियार उठाए।
प्रसार: आंदोलन नलगोंडा, वारंगल, करीमनगर, और अन्य जिलों में फैल गया। विद्रोहियों ने गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई, जिसमें जमींदारों के ठिकानों, रजाकारों, और निज़ाम की सेना पर हमले किए गए। कई गाँवों में संगम (कम्युनिस्ट-प्रेरित ग्राम समितियाँ) बनाई गईं, जो स्थानीय प्रशासन को नियंत्रित करती थीं। भूमि वितरण: विद्रोहियों ने जमींदारों की जमीन जब्त कर किसानों में बाँट दी।
हिंसा और प्रतिरोध: विद्रोहियों ने तलवार, भाले, और बंदूकों का उपयोग किया। रजाकारों और निज़ाम की सेना ने क्रूर दमन किया। सुरपेट हत्याकांड (1946): रजाकारों ने सैकड़ों किसानों को मार डाला। भारत का हस्तक्षेप: 1948 में भारत ने ऑपरेशन पोलो के तहत हैदराबाद रियासत को भारत में मिला लिया, जिसके बाद निज़ाम का शासन समाप्त हुआ। इसके बावजूद, कम्युनिस्ट नेताओं ने 1951 तक विद्रोह जारी रखा, क्योंकि वे भारत सरकार की नीतियों से असंतुष्ट थे।
परिणाम: सफलताएँ: तेलंगाना विद्रोह ने जमींदारी प्रथा को कमजोर किया और स्वतंत्र भारत में भूमि सुधारों की नींव रखी। हजारों एकड़ जमीन किसानों को पुनर्वितरित की गई। आंदोलन ने कम्युनिस्ट विचारधारा को दक्षिण भारत में मजबूत किया।
दमन: 1951 में कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध और सैन्य दमन के कारण विद्रोह समाप्त हुआ। हजारों विद्रोही मारे गए, और कई नेता जेल गए। दीर्घकालिक प्रभाव: तेलंगाना विद्रोह ने भारत में भूमि सुधारों और किसान अधिकारों पर चर्चा को बढ़ावा दिया। इसने तेलंगाना क्षेत्र में सामाजिक-आर्थिक बदलावों को प्रेरित किया। आंदोलन की विरासत 1960-70 के दशक में नक्सलबाड़ी आंदोलन और नक्सलवाद के रूप में उभरी। राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में योगदान: यह आंदोलन स्वतंत्रता के तुरंत बाद हुआ, लेकिन इसने निज़ाम और ब्रिटिश समर्थित शासकों के खिलाफ प्रतिरोध को दर्शाया।
तुलना (पाइक, फकीर, रंपा, मुंडा, नील, पाबना, दक्कन, अवध, मोपला, कूका, रामोसी, ताना भगत, और तेभागा से):
पाइक विद्रोह (1817): सैन्य विद्रोह, ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ, जबकि तेलंगाना सशस्त्र और कम्युनिस्ट-प्रेरित था।
फकीर विद्रोह (1760-1800): धार्मिक समुदायों द्वारा गुरिल्ला युद्ध, जबकि तेलंगाना किसान और कम्युनिस्ट था।
रंपा विद्रोह (1879, 1922-24): आदिवासी और गुरिल्ला युद्ध, तेलंगाना से मिलता-जुलता, लेकिन तेलंगाना में कम्युनिस्ट संगठन और भूमि वितरण अधिक था।
मुंडा विद्रोह (1899-1900): आदिवासी और धार्मिक, जबकि तेलंगाना कम्युनिस्ट और आर्थिक था।
नील आंदोलन (1859-60): नील बागान मालिकों के खिलाफ, शांतिपूर्ण, जबकि तेलंगाना सशस्त्र और हिंसक था।
पाबना विद्रोह (1873-76): जमींदारों के खिलाफ शांतिपूर्ण, जबकि तेलंगाना में सशस्त्र प्रतिरोध और कम्युनिस्ट नेतृत्व था।
दक्कन दंगे (1875): साहूकारों के खिलाफ हिंसक, तेलंगाना से कम संगठित।
अवध किसान सभा (1918-22): गांधीवादी और शांतिपूर्ण, जबकि तेलंगाना कम्युनिस्ट और सशस्त्र था।
मोपला विद्रोह (1921): खिलाफत और जमींदार विरोधी, तेलंगाना से मिलता-जुलता, लेकिन तेलंगाना में धार्मिक तत्व कम थे।
कूका आंदोलन (1871-72): धार्मिक और सशस्त्र, जबकि तेलंगाना कम्युनिस्ट और किसान-केंद्रित था।
रामोसी विद्रोह (1822-29): मराठा गौरव और अकाल से प्रेरित, तेलंगाना से अधिक स्थानीय और कम संगठित।
ताना भगत आंदोलन (1914-20): आदिवासी और गांधीवादी, जबकि तेलंगाना कम्युनिस्ट और सशस्त्र था।
तेभागा आंदोलन (1946-47): बटाईदारों और कम्युनिस्ट-प्रेरित, तेलंगाना से बहुत समान, लेकिन तेलंगाना में सशस्त्र गुरिल्ला युद्ध और निज़ाम शासन के खिलाफ अधिक तीव्रता थी।
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