Gandhian outlook and progressive political consciousness गाँधीवादी दृष्टिकोण और प्रगतिशील राजनितिक चेतना
jp Singh
2025-05-03 00:00:00
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Gandhian outlook and progressive political consciousness गाँधीवादी दृष्टिकोण और प्रगतिशील राजनितिक चेतना
1. भूमिका (Introduction) का प्रारंभिक मसौदा:
बीसवीं सदी की भारतीय राजनीति में महात्मा गाँधी एक ऐसी विभूति के रूप में उभरे जिन्होंने न केवल स्वतंत्रता आंदोलन को एक नैतिक दिशा प्रदान की, बल्कि राजनीति को सत्य, अहिंसा और नैतिकता के मूलभूत सिद्धांतों से जोड़ने का प्रयास किया। गाँधीजी का दृष्टिकोण केवल एक राजनैतिक रणनीति न होकर एक जीवन दृष्टि थी, जो व्यक्ति और समाज दोनों के चरित्र निर्माण की प्रक्रिया में विश्वास रखती थी।
दूसरी ओर, प्रगतिशील राजनीतिक चेतना वह सोच है जो समय के साथ बदलते सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक यथार्थ को स्वीकारते हुए, अधिक समावेशी, न्यायपूर्ण और सशक्त लोकतंत्र की स्थापना का सपना देखती है। यह निबंध इन्हीं दो धाराओं—गांधीवादी दृष्टिकोण और प्रगतिशील चेतना—के अंतर्संबंधों, अंतर्विरोधों और संभावनाओं का विश्लेषण करता है।
2. गाँधीवादी दृष्टिकोण के मूल सिद्धांत
महात्मा गांधी के दृष्टिकोण को समझने के लिए, उनके जीवन और विचारों के मुख्य बिंदुओं को जानना आवश्यक है। गाँधीजी का विश्वास था कि राजनीति का कार्य केवल सत्ता की प्राप्ति नहीं, बल्कि एक आदर्श समाज की स्थापना करना है, जो सत्य, अहिंसा और सामाजिक न्याय पर आधारित हो। उनके दृष्टिकोण में, व्यक्ति और समाज की आध्यात्मिक उन्नति और सामाजिक सुधार एक साथ चलते थे।
3.सत्य और अहिंसा
गाँधीजी के लिए सत्य और अहिंसा केवल व्यक्तिगत आचरण के सिद्धांत नहीं थे, बल्कि वे एक व्यापक सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण थे। उनका मानना था कि अगर राजनीति में सत्य और अहिंसा का पालन किया जाए, तो न केवल समाज की आत्मा शुद्ध होगी, बल्कि यह स्वतंत्रता संग्राम जैसे आंदोलनों को नैतिक बल भी प्रदान करेगा।
उनका यह भी कहना था कि अहिंसा केवल शारीरिक हिंसा से बचना नहीं है, बल्कि यह मानसिक और भावनात्मक हिंसा से भी मुक्त होने का मार्ग है। सत्य का पालन करने का मतलब केवल सत्य बोलना नहीं, बल्कि सत्य के प्रति गहरी प्रतिबद्धता रखना था।
इस सिद्धांत का उदाहरण उनके असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में देखा जा सकता है, जहां उन्होंने अहिंसा के बल पर ब्रिटिश साम्राज्य का विरोध किया। गाँधीजी का यह विचार प्रगतिशील राजनीतिक चेतना से मेल खाता है, क्योंकि यह समाज में समानता और शांति की स्थापना की दिशा में कार्य करता है।
4.ट्रस्टीशिप (Nayashita) का सिद्धांत
गाँधीजी का ट्रस्टीशिप का सिद्धांत सामाजिक और आर्थिक समानता के प्रति उनकी दृष्टि को दर्शाता है। उनका मानना था कि संपत्ति का स्वामित्व केवल समाज के लिए नहीं, बल्कि समाज के प्रत्येक सदस्य की भलाई के लिए होना चाहिए। संपत्ति का वास्तविक स्वामी भगवान है, और मनुष्य केवल उसका ट्रस्टी (न्यासी) है। इस सिद्धांत का उद्देश्य आर्थिक असमानता को समाप्त करना और समाज में हर व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करना था।
ट्रस्टीशिप का सिद्धांत प्रगतिशील राजनीति के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह समाज में वर्गभेद को समाप्त करने की दिशा में एक मजबूत कदम है। यह सिद्धांत समाज के शक्तिशाली वर्गों को उनके संसाधनों का उपयोग केवल अपने लाभ के लिए नहीं, बल्कि समाज की व्यापक भलाई के लिए करने की शिक्षा देता है।
5.ग्राम स्वराज और विकेन्द्रीकरण
गाँधीजी का मानना था कि स्वतंत्रता केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक भी होनी चाहिए। उन्होंने ग्राम स्वराज का समर्थन किया, जिसमें प्रत्येक गांव को स्वायत्त और आत्मनिर्भर बनाया जाए। उनका विश्वास था कि गांवों में आत्मनिर्भरता की स्थापना से भारत को स्वतंत्रता मिल सकेगी और समाज में समानता का निर्माण होगा।
विकेन्द्रीकरण का विचार गाँधीजी के लिए केवल प्रशासनिक या राजनीतिक प्रक्रिया नहीं था, बल्कि यह एक सामाजिक आंदोलन था। गाँधीजी का कहना था कि शक्ति का विकेन्द्रीकरण समाज में न्याय और समानता का मार्ग प्रशस्त करेगा। इस दृष्टिकोण से उनका उद्देश्य था कि छोटे स्तर पर समुदायों को सशक्त किया जाए, ताकि वे अपनी समस्याओं का समाधान स्वयं कर सकें।
6.आत्मनिर्भरता और स्वदेशी
गाँधीजी ने 'स्वदेशी' आंदोलन के माध्यम से भारत को औद्योगिक और व्यापारिक निर्भरता से मुक्त करने का प्रयास किया। उनका मानना था कि अगर भारत को सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त करनी है, तो उसे विदेशी वस्त्रों और उत्पादों पर निर्भरता को समाप्त करना होगा। इसके बजाय, उन्होंने खादी और स्वदेशी उत्पादों के उपयोग को बढ़ावा दिया, ताकि भारत आत्मनिर्भर बन सके और उसके लोगों को रोजगार मिल सके।
आत्मनिर्भरता का सिद्धांत न केवल अर्थव्यवस्था को सशक्त करने के लिए था, बल्कि यह एक समाजिक और नैतिक दृष्टिकोण था, जो हर व्यक्ति को आत्मनिर्भर और सम्मानजनक जीवन जीने का अवसर देता था। यह सिद्धांत प्रगतिशील राजनीति में आर्थिक समानता और आत्मनिर्भर समाज की अवधारणा से मेल खाता है।
7.नैतिक राजनीति
गाँधीजी का मानना था कि राजनीति को नैतिकता और सत्य से जोड़ना चाहिए। उनका कहना था कि यदि राजनीति में नैतिक सिद्धांतों का पालन नहीं किया जाता, तो समाज में भ्रष्टाचार और अन्याय बढ़ेंगे। राजनीति के लिए गांधीजी का आदर्श यह था कि यह केवल सत्ता के लिए न हो, बल्कि समाज की भलाई के लिए हो।
नैतिक राजनीति का सिद्धांत समाज में पारदर्शिता, ईमानदारी और लोकहित की ओर मार्गदर्शन करता है। यह प्रगतिशील राजनीतिक चेतना में आवश्यक है, क्योंकि प्रगतिशीलता का मतलब केवल आर्थिक और सामाजिक सुधार नहीं है, बल्कि यह नैतिकता और न्याय की स्थापना भी है।
8. प्रगतिशील राजनीतिक चेतना: एक परिचय
प्रगतिशील राजनीति का अर्थ है एक ऐसी राजनीतिक दृष्टिकोण और कार्यपद्धति जो समाज के सबसे कमजोर और वंचित वर्गों के लिए न्याय, समानता, और अवसर की समानता सुनिश्चित करने के लिए काम करे। यह दृष्टिकोण समय के साथ बदलाव, समाज की नयी आवश्यकताओं को समझने और सुधारों के माध्यम से आगे बढ़ने का समर्थन करता है।
9.प्रगतिशीलता का मूल सिद्धांत
प्रगतिशीलता का प्रमुख उद्देश्य समाज में सुधार करना है ताकि हर व्यक्ति को समान अधिकार, अवसर और सम्मान प्राप्त हो सके। इसमें सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता, और राजनीतिक भागीदारी को प्राथमिकता दी जाती है। प्रगतिशील राजनीति इस विचारधारा पर आधारित है कि राज्य को केवल सत्ता का भोगी नहीं होना चाहिए, बल्कि समाज की भलाई के लिए काम करना चाहिए।
इस दृष्टिकोण में शिक्षा, स्वास्थ्य, श्रम अधिकारों, और पर्यावरण संरक्षण जैसे मुद्दों पर जोर दिया जाता है। प्रगतिशील राजनीतिक चेतना का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी भी वर्ग को तुच्छ न समझा जाए और सबको समान अवसर मिले।
10.समाज में समानता और सामाजिक न्याय
प्रगतिशील राजनीति के केंद्रीय तत्वों में से एक है सामाजिक न्याय। इसका अर्थ है समाज के सभी वर्गों को समान अवसर प्रदान करना, चाहे वे आर्थिक, जातिगत, धार्मिक या लिंग आधारित भेदभाव का शिकार हों। इसका उद्देश्य है कि प्रत्येक व्यक्ति को जीवन की मूलभूत सुविधाओं का समान रूप से अधिकार मिले, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, और न्याय।
प्रगतिशील राजनीति में न केवल कानूनों की समानता पर जोर दिया जाता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया जाता है कि समाज में व्याप्त असमानताएँ समाप्त हों और हर व्यक्ति को अपनी पूरी क्षमता दिखाने का अवसर मिले। यह विचारधारा गाँधीजी के सिद्धांत "सर्वोदय" (सबकी भलाई) से मेल खाती है, जिसमें समाज के कमजोर वर्गों की भलाई पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
11.राजनीतिक अधिकार और भागीदारी
प्रगतिशील राजनीति में यह सुनिश्चित करना कि समाज के प्रत्येक सदस्य को समान राजनीतिक अधिकार मिले, एक महत्वपूर्ण पहलू है। इसका मतलब है कि समाज के प्रत्येक वर्ग, चाहे वह समाज का पिछड़ा वर्ग हो, महिला हो, दलित हो, या आदिवासी, उन्हें चुनावों में समान रूप से भागीदारी का अवसर मिलना चाहिए।
यह सिद्धांत गाँधीजी के "स्वराज" के विचार से मेल खाता है, जिसमें उन्होंने प्रत्येक नागरिक को आत्मनिर्भर और स्वायत्त बनाने की बात की थी। गाँधीजी का मानना था कि स्वतंत्रता केवल सत्ता के हस्तांतरण का नाम नहीं है, बल्कि यह समाज के हर सदस्य को अपनी आवाज़ उठाने का अधिकार देना है। प्रगतिशील राजनीतिक चेतना भी इसी दिशा में काम करती है, जहां लोगों की राजनीतिक भागीदारी को सशक्त बनाया जाता है।
12.समानता और अवसर
प्रगतिशील राजनीति का दूसरा बड़ा पहलू है अवसरों की समानता। इसका अर्थ है कि समाज में किसी भी व्यक्ति को उसके जन्म, जाति, लिंग या धर्म के आधार पर भेदभाव का सामना न करना पड़े। यह सिद्धांत सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को खत्म करने की दिशा में काम करता है।
गाँधीजी का "नारी सशक्तिकरण" और "दलितों का उद्धार" के विचार भी इस परिप्रेक्ष्य में आते हैं। उन्होंने हमेशा समाज के शोषित और कमजोर वर्गों के लिए आवाज़ उठाई और उनके अधिकारों की रक्षा करने का प्रयास किया। प्रगतिशील राजनीति में भी यही आदर्श है कि हर व्यक्ति को समान अवसर मिले, और उनका समाज में एक सम्मानजनक स्थान हो।
13.वैश्वीकरण और बाजार की आलोचना
प्रगतिशील राजनीति वैश्वीकरण और बाजार आधारित अर्थव्यवस्था की आलोचना करती है, खासकर जब ये शोषण और असमानताओं को बढ़ाते हैं। इसे एक ऐसे दृष्टिकोण के रूप में देखा जाता है जो पूंजीवाद के अत्यधिक प्रभाव को चुनौती देता है और इस बात पर जोर देता है कि विकास केवल आर्थिक लाभ के आधार पर नहीं, बल्कि सामाजिक और मानवीय दृष्टिकोण से होना चाहिए।
गाँधीजी ने भी औद्योगिकीकरण और पश्चिमी पूंजीवादी मॉडल की आलोचना की थी। उनका मानना था कि एक आदर्श समाज वह है जहां लोक कल्याण और नैतिक मूल्य सबसे ऊपर हों। प्रगतिशील राजनीतिक चेतना इसी विचारधारा को आगे बढ़ाती है, जो आधुनिक अर्थव्यवस्था के बाजारवाद के प्रतिकूल है और सामाजिक न्याय को प्राथमिकता देती है।
14.गाँधीवादी दृष्टिकोण और प्रगतिशील चेतना के बीच साम्य
गाँधीवादी दृष्टिकोण और प्रगतिशील राजनीतिक चेतना के बीच कई समानताएँ हैं, जो दोनों विचारधाराओं को जोड़ती हैं।
1. सामाजिक समानता:
दोनों ही विचारधाराएँ समाज में असमानताओं को समाप्त करने का प्रयास करती हैं। गांधीजी के विचारों में जहाँ हर व्यक्ति के लिए समानता का अधिकार था, वहीं प्रगतिशील राजनीति भी यही सिद्धांत मानती है कि समाज के प्रत्येक वर्ग को समान अवसर और अधिकार मिलने चाहिए।
2. विकेन्द्रीकरण:
गाँधीजी ने ग्राम स्वराज की बात की थी, जहां शक्ति का विकेन्द्रीकरण किया जाए। प्रगतिशील राजनीतिक चेतना भी यह मानती है कि सत्ता और संसाधनों का विकेन्द्रीकरण करना चाहिए ताकि हर व्यक्ति या समुदाय अपने हक के लिए आवाज़ उठा सके।
3. नैतिकता:
गाँधीजी का विश्वास था कि राजनीति को नैतिकता से जोड़ना चाहिए, और यही विचार प्रगतिशील राजनीति में भी निहित है। प्रगतिशील राजनीति में भी न्याय, ईमानदारी, और समानता के सिद्धांतों का पालन किया जाता है।
15. गाँधीवाद और प्रगतिशील चेतना के बीच साम्य
गाँधीवादी दृष्टिकोण और प्रगतिशील राजनीतिक चेतना दोनों ही समाज में सुधार, समानता और न्याय की ओर अग्रसर होने की कोशिश करते हैं, लेकिन दोनों के बीच साम्य कुछ मुख्य बिंदुओं पर केंद्रित है। इन समानताओं को समझना हमें यह जानने में मदद करेगा कि गाँधीवाद आज भी प्रगतिशील राजनीतिक दृष्टिकोण में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
1. अहिंसा और समावेशिता
गाँधीजी का अहिंसा का सिद्धांत न केवल व्यक्तिगत आचरण में बल्कि सामाजिक और राजनीतिक जीवन में भी प्रासंगिक था। उन्होंने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि अहिंसा न केवल शारीरिक हिंसा से बचने का नाम है, बल्कि यह मानसिक और भावनात्मक हिंसा से भी मुक्ति पाने का एक मार्ग है।
प्रगतिशील राजनीतिक चेतना भी समावेशिता को महत्त्व देती है। यह मानती है कि समाज में सबको समान रूप से सम्मान मिलना चाहिए, और किसी भी तरह की हिंसा या भेदभाव को नकारा जाना चाहिए। यहाँ पर साम्य यह है कि दोनों ही दृष्टिकोण समान अधिकारों और सम्मान की बात करते हैं, चाहे वह किसी भी वर्ग या समुदाय से हो। गाँधीजी का यह आदर्श प्रगतिशील राजनीति में यह प्रेरणा देता है कि समाज के सभी वर्गों, विशेषकर कमजोर और वंचित वर्गों को समान अवसर और अधिकार मिलें।
2. विकेन्द्रीकरण और स्थानीय नेतृत्व
गाँधीजी ने हमेशा ग्राम स्वराज की बात की, जिसमें उन्होंने यह प्रस्तावित किया कि राजनीतिक और सामाजिक सत्ता का विकेन्द्रीकरण किया जाए ताकि हर गांव और समुदाय को अपनी समस्याओं के समाधान में स्वायत्तता मिले। उनका यह विचार था कि जब तक गांवों में आत्मनिर्भरता और स्वायत्तता नहीं आती, तब तक देश में सच्ची स्वतंत्रता नहीं आ सकती।
प्रगतिशील राजनीतिक चेतना भी विकेन्द्रीकरण की विचारधारा को स्वीकार करती है। यह मानती है कि सत्ता और संसाधनों का केंद्रीयकरण समाज में असमानताएँ और अत्याचार बढ़ाता है। प्रगतिशील राजनीति का मानना है कि केवल एक विकेन्द्रीकृत व्यवस्था ही समाज में सच्चे समानता और न्याय की स्थापना कर सकती है। गाँधीजी का ग्राम स्वराज और प्रगतिशील राजनीतिक चेतना दोनों ही समाज में छोटे समुदायों और लोक नेतृत्व की आवश्यकता को महसूस करते हैं, जो बड़े केंद्रीय नेतृत्व से अधिक प्रभावी और न्यायपूर्ण हो।
3. आत्मनिर्भरता और समाजिक आर्थिक न्याय
गाँधीजी ने हमेशा आत्मनिर्भरता और स्वदेशी उत्पादों के महत्व पर जोर दिया। उनका यह मानना था कि यदि भारतीयों को सच्ची स्वतंत्रता चाहिए, तो उन्हें औद्योगिक और व्यापारिक निर्भरता को समाप्त करना होगा। उन्होंने खादी और स्वदेशी वस्त्रों के उत्पादन को बढ़ावा दिया, ताकि भारतीय अपने उत्पादों पर निर्भर हो सकें और विदेशी साम्राज्य से मुक्ति पा सकें।
प्रगतिशील राजनीतिक चेतना में भी समाज के आर्थिक विकास में आत्मनिर्भरता की बात की जाती है। यह सिद्धांत वैश्वीकरण और पूंजीवाद की आलोचना करता है, क्योंकि यह आर्थिक असमानता को बढ़ावा देता है और समाज के गरीब वर्गों को और अधिक शोषित करता है। प्रगतिशील राजनीति की यह धारणा भी गाँधीजी के सिद्धांतों से मेल खाती है, जो समाज में संसाधनों का समान वितरण और गरीबों को आर्थिक रूप से सशक्त करने की बात करती है।
4. सामाजिक न्याय और समानता
गाँधीजी का दर्शन यह था कि समाज में समानता और न्याय की स्थापना होनी चाहिए, चाहे वह जाति, धर्म, लिंग या सामाजिक वर्ग के आधार पर हो। उन्होंने दलितों के अधिकारों की रक्षा की और उन्हें समाज में सम्मान दिलाने के लिए कड़ी मेहनत की। गाँधीजी का यह विचार था कि "हर व्यक्ति को समान अधिकार मिलना चाहिए और कोई भी समाज में शोषित नहीं होना चाहिए।"
प्रगतिशील राजनीति में भी यही विचारधारा है, जिसमें जाति, धर्म, और लिंग आधारित भेदभाव के खिलाफ संघर्ष किया जाता है। यह आंदोलन समाज के कमजोर वर्गों, विशेषकर दलितों, महिलाओं और आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा करता है और यह सुनिश्चित करता है कि उन्हें समाज में समान दर्जा मिले। गाँधीजी का यह सामाजिक न्याय का आदर्श प्रगतिशील राजनीति में एक स्थायी प्रेरणा का काम करता है।
5. नैतिकता और पारदर्शिता
गाँधीजी का यह विश्वास था कि राजनीति का कार्य केवल सत्ता की प्राप्ति नहीं, बल्कि समाज की सेवा करना है। उन्होंने हमेशा नैतिक राजनीति की बात की, जिसमें भ्रष्टाचार और अन्याय का कोई स्थान नहीं होता। उनके अनुसार, एक नेता का काम केवल जनता का नेतृत्व करना नहीं था, बल्कि उसे अपनी नैतिक जिम्मेदारी को भी समझना था।
प्रगतिशील राजनीति में भी नैतिकता और पारदर्शिता का बहुत महत्व है। इसमें राजनीतिक नेताओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने कार्यों में ईमानदार रहें और किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार, शोषण या अन्याय से बचें। यह सिद्धांत गाँधीजी के आदर्शों के अनुरूप है, जो केवल सत्ता के लिए नहीं, बल्कि समाज की भलाई के लिए राजनीति करने का पक्षधर थे।
16.गाँधीवाद और प्रगतिशील चेतना में अंतर्विरोध
हालांकि गाँधीवाद और प्रगतिशील चेतना के बीच बहुत से साम्य हैं, कुछ बिंदुओं पर अंतर्विरोध भी हैं। उदाहरण के लिए:
औद्योगिकीकरण:
गाँधीजी ने औद्योगिकीकरण का विरोध किया था, क्योंकि उनका मानना था कि यह समाज में असमानताएँ बढ़ाएगा और प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करेगा। जबकि प्रगतिशील राजनीति औद्योगिकीकरण के पक्ष में है, लेकिन यह यह सुनिश्चित करने का प्रयास करती है कि इसका लाभ समाज के हर वर्ग तक पहुंचे, न कि केवल पूंजीपतियों तक।
वैश्वीकरण और बाजार अर्थव्यवस्था:
गाँधीजी ने पश्चिमी बाजार अर्थव्यवस्था की आलोचना की थी, जबकि प्रगतिशील राजनीति वैश्वीकरण के सापेक्ष इसे संशोधित करने और समाज के लिए इसका अधिकतम लाभ लेने का प्रयास करती है।
Conclusion
गाँधीवादी दृष्टिकोण और प्रगतिशील राजनीतिक चेतना में कई समानताएँ हैं जो सामाजिक समानता, अहिंसा, और न्याय की ओर बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करती हैं। हालांकि, दोनों में कुछ बुनियादी अंतर भी हैं, विशेष रूप से औद्योगिकीकरण और वैश्वीकरण के संदर्भ में। फिर भी, इन दोनों विचारधाराओं के सामूहिक प्रभाव से समाज में महत्वपूर्ण बदलाव आ सकते हैं, और यह आवश्यक है कि हम इन दोनों के सिद्धांतों को समन्वयित रूप से लागू करें, ताकि एक न्यायपूर्ण और समावेशी समाज का निर्माण हो सके।
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