ज़िन्दगी की किताब
Soni Singh
2025-03-29 22:59:18
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जिंदगी की किताब
जिंदा हूं मगर जिंदगी से दूर हूं, आज क्यों इस कदर मजबूर हूं, बिना गलती की सजा मिलती है मुझे, किससे कहूं कि आखिर बेकसूर हूं
जब कोई अपने मन में आपकी छवि ही गलत बना ले, तो फिर चाहे आप कितना भी अच्छा क्यों ना हो, उनके लिए आप हमेशा गलत ही रहेंगे
तुम्हारे मुँह से जब सुनी मैंने अपने चरित्र की बातें, भगवान ना करे, किसी को चाहने वाला किसी को ऐसा कहे |
हर वक्त मिलती रहती है मुझे अनजानी सी सजा, मैं कैसे पूछूं तकदीर से कि मेरी सजा क्या है |
जिन तकलीफों को तुम्हें मेरी आंखों में पढ़ना चाहिए था, मगर अफ़सोस की उनका एहसास तुम्हें मेरे बताने के बाद भी नहीं हुआ |
अब थक गई हूं सब कुछ सहते सहते, समझ नहीं आता आखिर जाऊं किस रास्ते, कुछ पल के लिए मुझे अपने गोद में सुला लो ना, ताकि सारे दर्द भूल जाऊ हंसते हंसते |
एक रात एक बात लिखूंगा, खुद को दाग तुझे साफ लिखूंगा, हकीकत में तू कभी मिलेगा नहीं, एक किताब में अपनी मुलाकात लिखूंगा |
बेईमानी भी मुझे तेरे इश्क ने सिखाई थी, तू पहली चीज थी जिसे अपनी मां से छुपाई थी |
बड़ी सफाई से कतल कर गए वो मेरे यकीन का, ना खंजर मिला, ना खून, ना सबूत....
पूरी शायरी पढ़ने के लिए आपका धन्यवाद....