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Partition of Bengal
jp Singh 2025-05-29 10:34:55
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बंगाल विभाजन

बंगाल विभाजन
बंगाल विभाजन (1905) ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को नया मोड़ दिया और राष्ट्रीय चेतना को तेजी से जागृत किया। यह विभाजन लॉर्ड कर्जन (वायसराय, 1899-1905) के शासनकाल में हुआ और इसे राष्ट्रीय आंदोलन में एक महत्वपूर्ण उत्प्रेरक के रूप में देखा जाता है। नीचे बंगाल विभाजन के कारण, प्रक्रिया, परिणाम और इसके प्रभाव का संक्षिप्त और व्यवस्थित विवरण दिया गया है:
बंगाल विभाजन के कारण
प्रशासनिक कारण (आधिकारिक तर्क): ब्रिटिश सरकार ने दावा किया कि बंगाल प्रांत (जो उस समय बंगाल, बिहार, उड़ीसा और असम को शामिल करता था) बहुत बड़ा था, और इसे प्रशासनिक दृष्टि से प्रबंधन करना कठिन था। जनसंख्या और क्षेत्रफल की दृष्टि से यह प्रांत अत्यधिक विस्तृत था, जिसके कारण प्रशासनिक सुधार की आवश्यकता बताई गई। राजनीतिक कारण (वास्तविक मंशा): "फूट डालो और राज करो" नीति: ब्रिटिश सरकार ने हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच विभाजन पैदा करने की रणनीति अपनाई, क्योंकि बंगाल में राष्ट्रीय चेतना तेजी से बढ़ रही थी। बंगाल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और राष्ट्रवादी गतिविधियों का केंद्र था। ब्रिटिश सरकार इसे कमजोर करना चाहती थी। मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को अलग करके ब्रिटिश सरकार ने सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने की कोशिश की।
आर्थिक कारण: ब्रिटिश सरकार पूर्वी बंगाल को एक अलग प्रांत बनाकर वहां के व्यापार और जूट उद्योग को नियंत्रित करना चाहती थी। असम को अलग करके पूर्वी क्षेत्रों में ब्रिटिश व्यापारिक हितों को बढ़ावा देना। विभाजन की प्रक्रिया: घोषणा: 1905 में लॉर्ड कर्जन ने बंगाल प्रांत को दो भागों में विभाजित करने की घोषणा की: पश्चिमी बंगाल: इसमें पश्चिमी बंगाल, बिहार, और उड़ीसा शामिल थे, जिसमें हिंदू बहुसंख्यक थे। पूर्वी बंगाल और असम: इसमें पूर्वी बंगाल और असम शामिल थे, जिसमें मुस्लिम बहुसंख्यक थे। आधिकारिक तिथि: विभाजन 16 अक्टूबर 1905 को लागू हुआ। प्रभावित क्षेत्र: बंगाल प्रांत को धार्मिक आधार पर विभाजित किया गया, जिससे सांप्रदायिक तनाव बढ़ा।
प्रतिक्रिया और स्वदेशी आंदोलन: भारतीयों की प्रतिक्रिया: बंगाल विभाजन को भारतीयों, विशेष रूप से बंगाली हिंदुओं, ने ब्रिटिश सरकार की "फूट डालो और राज करो" नीति के रूप में देखा। इसने व्यापक विरोध को जन्म दिया, जिसमें बंगाल के हिंदू और मुस्लिम दोनों शामिल थे, हालांकि बाद में सांप्रदायिकता ने कुछ हद तक एकता को प्रभावित किया। स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन (1905): स्वदेशी: भारतीयों ने स्वदेशी वस्तुओं (जैसे कपड़ा, नमक) को अपनाने और स्वदेशी उद्योगों को बढ़ावा देने का आह्वान किया। बहिष्कार: ब्रिटिश माल, जैसे कपड़े, और ब्रिटिश संस्थानों (स्कूल, कॉलेज, सरकारी नौकरियां) का बहिष्कार किया गया। नेतृत्व: सुरेंद्रनाथ बनर्जी, रवींद्रनाथ टैगोर, और अन्य बंगाली नेताओं ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। प्रमुख गतिविधियां: रवींद्रनाथ टैगोर ने रक्षाबंधन उत्सव (16 अक्टूबर 1905) का आयोजन किया, जिसमें हिंदू-मुस्लिम एकता पर जोर दिया गया।
स्वदेशी स्कूल, कॉलेज, और उद्योग स्थापित किए गए, जैसे नेशनल कॉलेज, कलकत्ता। उग्रवाद का उदय: बंगाल विभाजन ने उग्रवादी नेताओं (बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल, लाला लाजपत राय) को प्रेरित किया, जिन्होंने स्वराज (पूर्ण स्वशासन) की मांग को तेज किया। क्रांतिकारी गतिविधियां, जैसे अनुशीलन समिति और युगांतर समूह, ने बंगाल में सशस्त्र संघर्ष शुरू किया। परिणाम: राष्ट्रीय चेतना का प्रसार: बंगाल विभाजन ने राष्ट्रीय आंदोलन को व्यापक और जन-आंदोलन में बदल दिया। यह पहली बार था जब भारतीयों ने बड़े पैमाने पर संगठित होकर ब्रिटिश नीतियों का विरोध किया। कांग्रेस में विभाजन: 1907 के सूरत अधिवेशन में कांग्रेस उदारवादी और उग्रवादी गुटों में विभाजित हो गई। उग्रवादियों ने स्वदेशी और स्वराज पर जोर दिया, जबकि उदारवादी संवैधानिक तरीकों को प्राथमिकता देते थे।
सांप्रदायिकता का उदय: ब्रिटिश सरकार की नीति ने हिंदू-मुस्लिम तनाव को बढ़ाया। 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई, जिसने बाद में सांप्रदायिक विभाजन को और गहरा किया। विभाजन की समाप्ति: व्यापक विरोध के कारण ब्रिटिश सरकार को 1911 में बंगाल विभाजन को रद्द करना पड़ा (दिल्ली दरबार में लॉर्ड हार्डिंग द्वारा घोषणा)। बंगाल को पुनः एकीकृत किया गया, लेकिन बिहार, उड़ीसा, और असम को अलग प्रांत बनाया गया। भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित किया गया।
प्रमुख प्रभाव: राष्ट्रीय आंदोलन को गति: स्वदेशी आंदोलन ने राष्ट्रीय आंदोलन को ग्रामीण और शहरी जनता तक पहुंचाया। इसने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को और सक्रिय बनाया। आर्थिक स्वावलंबन: स्वदेशी उद्योगों और शिक्षा संस्थानों की स्थापना ने आत्मनिर्भरता को बढ़ावा दिया। उग्रवाद और क्रांतिकारी आंदोलन: बंगाल में क्रांतिकारी संगठनों, जैसे अनुशीलन समिति, का उदय हुआ, जिन्होंने सशस्त्र संघर्ष को प्रेरित किया। सांस्कृतिक जागरण: रवींद्रनाथ टैगोर, बंकिम चंद्र चटर्जी, और अन्य साहित्यकारों ने सांस्कृतिक और राष्ट्रीय भावनाओं को प्रेरित किया।
ब्रिटिश नीतियों पर दबाव: व्यापक विरोध ने ब्रिटिश सरकार को 1909 के मोर्ले-मिंटो सुधारों के माध्यम से भारतीयों को सीमित विधायी प्रतिनिधित्व देने के लिए मजबूर किया।
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