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Factories (Amendment) Act, 1946
jp Singh 2025-05-28 14:10:34
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1946 का कारखाना संशोधन अधिनियम

1946 का कारखाना संशोधन अधिनियम
1946 का कारखाना संशोधन अधिनियम (Factories (Amendment) Act, 1946) भारत में औपनिवेशिक शासन के अंतिम चरण के दौरान 1948 के कारखाना अधिनियम के लागू होने से पहले 1934 के कारखाना अधिनियम में संशोधन करने के लिए पारित किया गया एक महत्वपूर्ण कानून था। यह अधिनियम कारखानों में मजदूरों की कार्य परिस्थितियों, स्वास्थ्य, सुरक्षा, और कल्याण को बेहतर बनाने के लिए बनाया गया था, जो 1881, 1891, 1922, और 1934 के कारखाना अधिनियमों की श्रृंखला का हिस्सा था। यह आपके पिछले प्रश्नों—कृषि का व्यापारीकरण, अकाल, औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था, धन का निष्कासन, हस्तशिल्प का ह्रास, आधुनिक उद्योगों का विकास, और पूर्ववर्ती कारखाना अधिनियमों (1881, 1891, 1922, 1934)—से जुड़ा हुआ है।
1946 के कारखाना संशोधन अधिनियम की पृष्ठभूमि औद्योगिक संदर्भ: 1850 के दशक से शुरू हुए सूती कपड़ा (बॉम्बे, अहमदाबाद), जूट (कोलकाता), और चाय बागान जैसे उद्योग 1940 के दशक तक भारत की औद्योगिक अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुके थे। द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) ने भारतीय उद्योगों पर भारी दबाव डाला, क्योंकि युद्ध के लिए उत्पादन (जैसे कपड़ा, इस्पात, और युद्ध सामग्री) बढ़ा। इससे मजदूरों के कार्य घंटे बढ़े और उनकी स्थिति और खराब हुई। युद्ध के बाद की आर्थिक स्थिति और मजदूरों की बढ़ती मांगों ने श्रम सुधारों की आवश्यकता को रेखांकित किया।
सामाजिक और राजनीतिक दबाव: अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO): 1919 में स्थापित ILO के मानकों ने भारत में श्रम सुधारों को प्रभावित किया। 1946 में, ILO के सम्मेलनों (जैसे कार्य घंटे, कल्याण, और सुरक्षा) को लागू करने का दबाव बढ़ा। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन: 1940 के दशक में स्वतंत्रता आंदोलन (जैसे भारत छोड़ो आंदोलन, 1942) अपने चरम पर था। मजदूर संगठन, जैसे अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC), और राष्ट्रवादी नेता (जैसे जवाहरलाल नेहरू) मजदूरों के अधिकारों की वकालत कर रहे थे। मजदूर आंदोलन: 1940 के दशक में हड़तालें और मजदूर असंतोष (जैसे बॉम्बे में टेक्सटाइल हड़तालें) बढ़े, जिसने मजदूरों की खराब स्थिति (लंबे कार्य घंटे, कम वेतन, असुरक्षित परिस्थितियां) को उजागर किया। स्वतंत्रता की ओर अग्रसर: 1946 में, भारत स्वतंत्रता के करीब था, और ब्रिटिश प्रशासन ने श्रम सुधारों को लागू करके सामाजिक और राजनीतिक असंतोष को कम करने का प्रयास किया।
1934 के अधिनियम की कमियां: 1934 का अधिनियम मौसमी कारखानों और बड़े कारखानों तक सीमित था, और छोटे कारखाने इसके दायरे से बाहर थे। कार्यान्वयन कमजोर था, क्योंकि निरीक्षकों की संख्या और संसाधन अपर्याप्त थे। मजदूरों के वेतन, सामूहिक सौदेबाजी, और सामाजिक सुरक्षा (जैसे पेंशन, बीमा) के लिए कोई प्रावधान नहीं था। युद्ध के दौरान मजदूरों पर बढ़ा कार्यभार 1934 के नियमों से नियंत्रित नहीं हो सका। 1850 का संदर्भ: 1850 के दशक में सूती कपड़ा और जूट उद्योगों की स्थापना ने मजदूर वर्ग को जन्म दिया। हस्तशिल्प उद्योग के ह्रास और कृषि के व्यापारीकरण ने ग्रामीण आबादी को कारखानों में मजदूरी के लिए मजबूर किया, जिसने मजदूरों की खराब स्थिति को उजागर किया। 1850 के दशक में शुरू हुए रेलवे ने औद्योगिक विकास को बढ़ावा दिया, जिससे कारखानों की संख्या और मजदूरों की समस्याएं बढ़ीं।
1946 के कारखाना संशोधन अधिनियम के प्रमुख प्रावधान 1946 का कारखाना संशोधन अधिनियम 1934 के अधिनियम को मजबूत करने और ILO के मानकों को लागू करने के लिए लाया गया था। यह स्वतंत्र भारत में 1948 के कारखाना अधिनियम की नींव रखने वाला था। इसके प्रमुख प्रावधान निम्नलिखित थे
बाल श्रम और किशोरों पर सख्ती: न्यूनतम कार्य आयु 15 वर्ष बरकरार रखी गई, लेकिन किशोरों (15-17 वर्ष) के लिए कार्य घंटे को और कम करके 4.5 घंटे प्रतिदिन किया गया। किशोरों के लिए चिकित्सा प्रमाणपत्र और रजिस्टर मेंटेन करना अनिवार्य था। खतरनाक कार्यों में किशोरों के रोजगार पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया। महिलाओं के लिए प्रावधान: महिलाओं के लिए कार्य घंटे 9 घंटे प्रतिदिन तक सीमित किए गए।
रात की पाली (रात 7 बजे से सुबह 6 बजे तक) में महिलाओं के काम पर प्रतिबंध को और सख्त किया गया। प्रसूति लाभ (maternity benefits) के लिए प्रारंभिक प्रावधान जोड़े गए, जैसे प्रसव के दौरान अवकाश। वयस्क पुरुषों के लिए कार्य घंटे: वयस्क पुरुषों के लिए साप्ताहिक कार्य घंटे को 54 से घटाकर 48 घंटे और दैनिक कार्य घंटे को 10 से घटाकर 9 घंटे कर दिया गया। ओवरटाइम के लिए डबल वेतन का प्रावधान जोड़ा गया। साप्ताहिक अवकाश (आमतौर पर रविवार) और दैनिक विश्राम अंतराल को और सख्ती से लागू किया गया।
स्वास्थ्य और सुरक्षा: कारखानों में स्वच्छता, वेंटिलेशन, रोशनी, और पेयजल की सुविधाओं के लिए और सख्त मानक लागू किए गए। खतरनाक मशीनों, रासायनिक प्रक्रियाओं, और अग्नि सुरक्षा के लिए विस्तृत नियम बनाए गए। कारखाना मालिकों को व्यावसायिक बीमारियों (occupational diseases) और दुर्घटनाओं की अनिवार्य रिपोर्टिंग का आदेश दिया गया।
कल्याण उपाय: बड़े कारखानों में कैंटीन, विश्राम कक्ष, और प्राथमिक चिकित्सा की सुविधाएं अनिवार्य की गईं। कुछ कारखानों में कल्याण अधिकारियों (welfare officers) की नियुक्ति का प्रावधान जोड़ा गया। मौसमी और छोटे कारखानों का समावेश: मौसमी कारखानों (जैसे चीनी मिलें, जिन्सिंग मिलें) के लिए विशेष नियमों को और स्पष्ट किया गया। छोटे कारखानों (10+ मजदूरों वाले यांत्रिक और 20+ मजदूरों वाले गैर-यांत्रिक) को और प्रभावी ढंग से अधिनियम के दायरे में लाया गया।
निरीक्षण और अनुपालन: कारखाना निरीक्षकों की शक्तियों को और बढ़ाया गया, और उनकी संख्या में वृद्धि की गई। नियमों के उल्लंघन के लिए कड़े दंड और जुर्माने का प्रावधान किया गया, जिसमें कारखाना मालिकों की जवाबदेही बढ़ाई गई। 1946 के कारखाना संशोधन अधिनियम की सीमाएं सीमित दायरा: यह अधिनियम चाय बागानों, खदानों, और असंगठित क्षेत्रों पर लागू नहीं था, जहां मजदूरों का शोषण व्यापक था। बहुत छोटे कारखानों (10 से कम मजदूरों वाले) को अभी भी पूरी तरह शामिल नहीं किया गया।
कमजोर कार्यान्वयन: निरीक्षकों की संख्या और संसाधन अभी भी अपर्याप्त थे, विशेष रूप से ग्रामीण और छोटे शहरों में। ब्रिटिश और भारतीय कारखाना मालिकों ने लागत कम करने के लिए नियमों का उल्लंघन किया, और दंड अक्सर प्रभावी नहीं थे। मजदूरों के अधिकारों की कमी: अधिनियम में मजदूरों के वेतन, सामूहिक सौदेबाजी, या यूनियन गठन के अधिकारों के लिए कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं था। सामाजिक सुरक्षा (जैसे पेंशन, स्वास्थ्य बीमा) के लिए सीमित प्रावधान थे।
ब्रिटिश हितों का प्रभाव: अधिनियम आंशिक रूप से ILO और ब्रिटिश व्यापारिक हितों (लंकाशायर) के दबाव में लाया गया था। इसका उद्देश्य भारतीय मिलों की प्रतिस्पर्धा को सीमित करना भी था। 1946 के कारखाना संशोधन अधिनियम का प्रभाव सकारात्मक प्रभाव: बाल श्रम और किशोरों के शोषण पर और सख्ती ने बच्चों को खतरनाक कार्यों से बचाया। वयस्क पुरुषों और महिलाओं के लिए कम कार्य घंटे और ओवरटाइम वेतन ने मजदूरों की स्थिति में सुधार किया। कल्याण उपायों (जैसे कैंटीन, विश्राम कक्ष) और सुरक्षा मानकों ने कारखाना दुर्घटनाओं को कम किया।
यह अधिनियम स्वतंत्र भारत में 1948 के कारखाना अधिनियम की नींव रखने में महत्वपूर्ण था। नकारात्मक प्रभाव: अधिनियम का प्रभाव बड़े और मध्यम आकार के कारखानों तक सीमित रहा, और असंगठित क्षेत्रों में मजदूरों की स्थिति में सुधार नहीं हुआ। कार्यान्वयन की कमजोरी के कारण कई कारखाना मालिकों ने नियमों का उल्लंघन जारी रखा। मजदूरों के लिए संगठित होने और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए कोई ठोस ढांचा नहीं था।
सामाजिक और आर्थिक प्रभाव: अधिनियम ने मजदूर वर्ग की स्थिति पर ध्यान आकर्षित किया, जिसने ट्रेड यूनियनों और राष्ट्रीय आंदोलन को मजबूत किया। यह औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था में मजदूरों की स्थिति को सुधारने का एक अंतिम प्रयास था, लेकिन यह हस्तशिल्प के ह्रास, धन के निष्कासन, और कृषि के व्यापारीकरण से उत्पन्न समस्याओं को पूरी तरह संबोधित नहीं कर सका। स्वतंत्रता के करीब होने के कारण, यह अधिनियम भारतीय नेताओं और मजदूर संगठनों के लिए एक प्रेरणा बना। 1850 और पूर्ववर्ती अधिनियमों के संदर्भ में संबंध
1850 का संदर्भ: 1850 के दशक में सूती कपड़ा और जूट उद्योगों की स्थापना ने मजदूर वर्ग को जन्म दिया। हस्तशिल्प उद्योग के ह्रास और कृषि के व्यापारीकरण ने ग्रामीण आबादी को कारखानों में मजदूरी के लिए मजबूर किया, जिसने मजदूरों की खराब स्थिति को उजागर किया। 1850 के दशक में शुरू हुए रेलवे ने औद्योगिक विकास को बढ़ावा दिया, जिससे कारखानों की संख्या और मजदूरों की समस्याएं बढ़ीं।
1881 का कारखाना अधिनियम: 1881 का अधिनियम पहला प्रयास था, जो मुख्य रूप से बाल श्रम और सुरक्षा पर केंद्रित था, लेकिन इसका दायरा सीमित था (100+ मजदूरों वाले कारखाने)। 1891 का कारखाना अधिनियम: 1891 का अधिनियम 1881 की कमियों को सुधारने का प्रयास था, जिसमें दायरे का विस्तार (50+ मजदूर), महिलाओं के लिए प्रावधान, और सख्त निरीक्षण शामिल थे। 1922 का कारखाना अधिनियम: 1922 का अधिनियम 1891 का विस्तार था, जिसमें वयस्क पुरुषों के कार्य घंटों का नियमन और ILO मानकों का समावेश शामिल था।
1934 का कारखाना अधिनियम: 1934 का अधिनियम 1922 की तुलना में अधिक व्यापक था, जिसमें बाल श्रम की न्यूनतम आयु बढ़ाना, मौसमी कारखानों को शामिल करना, और कार्य घंटों को कम करना शामिल था।
1946 का संशोधन अधिनियम: 1946 का अधिनियम 1934 का विस्तार था, जो द्वितीय विश्व युद्ध के प्रभाव, ILO मानकों, और मजदूर आंदोलनों को ध्यान में रखकर बनाया गया था। यह स्वतंत्र भारत के 1948 के अधिनियम की नींव था।
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