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Revolt of the Khasi community
jp Singh 2025-05-28 12:35:46
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खासी विद्रोह (1826-1828)

खासी विद्रोह (1826-1828)
खासी विद्रोह (1826-1828) भारत के मेघालय (तत्कालीन असम का हिस्सा) में खासी आदिवासी समुदाय द्वारा ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ किया गया एक महत्वपूर्ण विद्रोह था। यह विद्रोह खासी पहाड़ियों में ब्रिटिश हस्तक्षेप, कर वसूली और स्थानीय स्वायत्तता पर अतिक्रमण के विरोध में हुआ। यह प्रथम एंग्लो-बर्मा युद्ध (1824-1826) के परिणामस्वरूप उत्पन्न परिस्थितियों से भी जुड़ा था।
प्रमुख बिंदु: पृष्ठभूमि: ब्रिटिश हस्तक्षेप: प्रथम एंग्लो-बर्मा युद्ध के दौरान ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने खासी पहाड़ियों का उपयोग सैन्य मार्ग के रूप में किया। युद्ध के बाद, ब्रिटिशों ने खासी क्षेत्र में अपनी उपस्थिति मजबूत करने और प्रशासनिक नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया। कर और शोषण: ब्रिटिशों ने खासी समुदाय पर कर लागू किए और उनकी पारंपरिक स्वायत्तता को कमजोर किया। खासी, जो अपनी स्वतंत्रता और स्वशासन के लिए जाने जाते थे, ने इसे अपने अधिकारों पर हमला माना। सांस्कृतिक और सामाजिक तनाव: ब्रिटिश शासन और ईसाई मिशनरियों के प्रभाव ने खासी समुदाय की पारंपरिक जीवनशैली और संस्कृति को खतरे में डाला।
भौगोलिक महत्व: खासी पहाड़ियाँ रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण थीं, क्योंकि ये असम और बर्मा के बीच एक महत्वपूर्ण मार्ग थीं। ब्रिटिशों ने इस क्षेत्र में सड़क निर्माण और सैन्य चौकियाँ स्थापित करने की योजना बनाई, जिसका खासियों ने विरोध किया। नेतृत्व और प्रारंभ: विद्रोह का नेतृत्व तिरोत सिंह (उ तिरोत सिंह), एक प्रमुख खासी नेता और नोंगख्लाव के सियेम (शासक), ने किया। 1826 में, जब ब्रिटिशों ने खासी क्षेत्र में सड़क निर्माण और सैन्य चौकियाँ स्थापित करने की कोशिश की, तिरोत सिंह ने इसे अपनी स्वायत्तता पर हमला माना और विद्रोह की शुरुआत की।
1826 में, नोंगख्लाव में ब्रिटिश अधिकारियों पर हमला हुआ, जिसमें दो ब्रिटिश अधिकारी मारे गए। यह घटना विद्रोह का प्रारंभिक बिंदु बनी। विद्रोह का स्वरूप: खासी विद्रोह एक सशस्त्र विद्रोह था, जिसमें खासियों ने अपनी पहाड़ी भौगोलिक स्थिति का लाभ उठाया। उन्होंने गुरिल्ला युद्ध रणनीति अपनाई, जिसमें तीर-कमान, भाले और प्राकृतिक गुफाओं का उपयोग किया गया। विद्रोह का केंद्र नोंगख्लाव और आसपास के खासी क्षेत्र थे। खासियों ने ब्रिटिश चौकियों, सैन्य टुकड़ियों और आपूर्ति लाइनों पर हमले किए। विद्रोह का उद्देश्य था ब्रिटिशों को क्षेत्र से खदेड़ना और खासी स्वायत्तता को पुनर्स्थापित करना।
दमन और परिणाम: ब्रिटिश सरकार ने विद्रोह को दबाने के लिए भारी सैन्य बल तैनात किया। उनकी बेहतर सैन्य शक्ति और हथियारों के सामने खासी विद्रोही टिक नहीं पाए। 1828 तक विद्रोह को पूरी तरह कुचल दिया गया। तिरोत सिंह को पकड़ लिया गया और ढाका की जेल में निर्वासित कर दिया गया, जहाँ 1835 में उनकी मृत्यु हो गई। विद्रोह के दमन के बाद, ब्रिटिशों ने खासी पहाड़ियों पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित कर लिया और क्षेत्र को अपने प्रशासनिक ढांचे में शामिल कर लिया। हालांकि, कुछ खासी राज्यों को सीमित स्वायत्तता दी गई, लेकिन यह ब्रिटिश अधीनता के तहत थी।
महत्व: खासी विद्रोह ने खासी समुदाय की स्वतंत्रता और स्वशासन की भावना को उजागर किया। यह ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के खिलाफ पूर्वोत्तर भारत में प्रारंभिक प्रतिरोधों में से एक था। तिरोत सिंह को खासी समुदाय में एक महान नायक के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने अपनी स्वायत्तता के लिए बलिदान दिया। इस विद्रोह ने बाद के पूर्वोत्तर भारत के स्वतंत्रता आंदोलनों और अस्मिता आंदोलनों को प्रेरित किया।
वर्तमान प्रासंगिकता: तिरोत सिंह को मेघालय और खासी समुदाय में एक राष्ट्रीय नायक के रूप में सम्मान दिया जाता है। उनकी वीरता और बलिदान को याद करने के लिए उ तिरोत सिंह दिवस मनाया जाता है। खासी विद्रोह मेघालय के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है, जो खासी अस्मिता और स्वायत्तता के संघर्ष का प्रतीक है।
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