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Chamar Dynasty or Chanwar Dynasty
jp Singh 2025-05-23 06:31:20
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चमार वंश (या चंवर वंश)

चमार वंश (या चंवर वंश)
चमार वंश (या चंवर वंश)
चमार वंश (या चंवर वंश) के बारे में ऐतिहासिक और सामाजिक दृष्टिकोण से चर्चा एक संवेदनशील और जटिल विषय है, क्योंकि यह भारतीय समाज की जाति व्यवस्था, ऐतिहासिक संदर्भों और सामाजिक परिवर्तनों से जुड़ा है। चमार समुदाय भारत में अनुसूचित जाति (Scheduled Caste) के अंतर्गत वर्गीकृत है और परंपरागत रूप से चमड़े के काम (leather tanning) और जूता निर्माण से जुड़ा रहा है। हालाँकि, इस समुदाय की उत्पत्ति और इतिहास को लेकर विभिन्न सिद्धांत और दावे मौजूद हैं, जिनमें कुछ ऐतिहासिक तथ्य और कुछ पौराणिक या सामाजिक कथाएँ शामिल हैं।
नीचे चमार वंश की उत्पत्ति, इतिहास और संबंधित सिद्धांतों का विस्तृत विवरण दिया गया है, जिसमें उपलब्ध साक्ष्यों और विभिन्न दृष्टिकोणों को ध्यान में रखा गया है।
1. चमार वंश की उत्पत्ति के सिद्धांत
(i) परंपरागत और ऐतिहासिक दृष्टिकोण
चमार शब्द का अर्थ:
ऐतिहासिक संदर्भ: गुप्तोत्तर काल (6वीं-7वीं शताब्दी) और मध्यकाल में चमार समुदाय मुख्य रूप से उत्तरी भारत (उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा) में पाया जाता था। कुछ इतिहासकार, जैसे रामनारायण रावत, तर्क देते हैं कि चमार समुदाय मूल रूप से कृषक (agriculturists) था, और चमड़े का काम उनकी प्राथमिक आजीविका नहीं था। यह धारणा बाद में औपनिवेशिक काल में बनाई गई।
(ii) चंवर वंश और क्षत्रिय मूल का दावा
चंवर वंश सिद्धांत: कुछ स्रोतों और सामाजिक आंदोलनों में दावा किया जाता है कि चमार समुदाय का वास्तविक नाम
चंवर पुराण: 1910 के आसपास यू.बी.एस. रघुवंशी ने श्री चंवर पुराण नामक पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें दावा किया गया कि चमार समुदाय मूल रूप से क्षत्रिय था। इस कथा में कहा गया कि भगवान विष्णु ने चमुंडा राय नामक राजा को शाप दिया, जिसके कारण उनके वंशज चमार कहलाए। बाद में, संत रविदास जैसे महान व्यक्तित्व के उदय से इस समुदाय को पुनः सम्मान प्राप्त हुआ।
साक्ष्य की कमी: इस सिद्धांत को समर्थन देने वाले ऐतिहासिक साक्ष्य सीमित हैं। अधिकांश विद्वान इसे सामाजिक उत्थान और क्षत्रियकरण (Kshatriyaization) की प्रक्रिया का हिस्सा मानते हैं, जिसमें निम्न मानी जाने वाली जातियों ने अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा करने के लिए क्षत्रिय या राजपूत मूल का दावा किया।
(iii) जाटव और यदुवंशी दावा
जाटव पहचान: 20वीं सदी की शुरुआत में, चमार समुदाय के कुछ हिस्सों ने
उद्देश्य: यह पहचान सामाजिक और राजनीतिक सशक्तिकरण का हिस्सा थी, जिसका उद्देश्य जातिगत भेदभाव को कम करना और समुदाय की सामाजिक स्थिति को ऊँचा करना था। जाटव संगठनों ने दावा किया कि चमार समुदाय का संबंध महाभारत के यदुवंशियों से है, जो भगवान कृष्ण के वंशज थे।
(iv) बौद्ध मूल सिद्धांत
कुछ स्रोतों में दावा किया जाता है कि चमार समुदाय प्राचीन बौद्ध श्रमणों (समनार) से उत्पन्न हुआ। इस सिद्धांत के अनुसार:
आलोचना: इस सिद्धांत को ऐतिहासिक साक्ष्य कम समर्थन देते हैं, और इसे सामाजिक गौरव की खोज से जोड़ा जाता है।
(v) स्थानीय और मिश्रित मूल
कुछ इतिहासकार मानते हैं कि चमार समुदाय का उदय स्थानीय कृषक और शिल्पकार समूहों से हुआ, जो समय के साथ चमड़े के काम से जुड़ गए। औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश प्रशासन ने जातियों को व्यवसायों के आधार पर वर्गीकृत किया, जिसने चमार समुदाय को चमड़े के काम से जोड़ने की धारणा को और मजबूत किया। चमार समुदाय का विकास विभिन्न क्षेत्रीय समूहों, जैसे कृषक, शिल्पकार और संभवतः कुछ विदेशी तत्वों (जैसे हूण या अन्य मध्य एशियाई समूह), के मिश्रण से हुआ।
2. ऐतिहासिक संदर्भ और विकास
गुप्तोत्तर काल (6वीं-7वीं शताब्दी): इस काल में सामंतवादी व्यवस्था के उदय के साथ, कई समुदायों को उनके व्यवसायों के आधार पर सामाजिक स्थिति दी गई। चमार समुदाय, जो चमड़े के काम से जुड़ा था, को निम्न माना गया, लेकिन उनकी आर्थिक भूमिका महत्वपूर्ण थी।
मध्यकाल (8वीं-18वीं शताब्दी): इस काल में चमार समुदाय ने कृषि और अन्य व्यवसायों में भी भाग लिया। सिकंदर लोदी के समय (15वीं-16वीं शताब्दी) चमार शब्द का उपयोग अपमानजनक रूप में शुरू हुआ, जैसा कि कुछ स्रोत दावा करते हैं।
औपनिवेशिक काल (19वीं-20वीं शताब्दी): ब्रिटिश शासन में चमार समुदाय ने चमड़े के व्यापार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, खासकर कानपुर जैसे क्षेत्रों में, जहाँ वे समृद्ध हुए। इस दौरान चमार समुदाय ने सामाजिक सुधार आंदोलनों, जैसे आदि हिंदू आंदोलन (स्वामी अछूतानंद) और जाटव वीर महासभा, के माध्यम से अपनी पहचान को क्षत्रिय के रूप में पुनर्जनन करने का प्रयास किया। संत रविदास (15वीं-16वीं शताब्दी), जो चमार समुदाय से थे, ने भक्ति आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया और सामाजिक समानता का संदेश दिया।
3. सामाजिक और राजनीतिक सशक्तिकरण
20वीं सदी में आंदोलन:
आदि हिंदू आंदोलन: स्वामी अछूतानंद ने चमार समुदाय को मूल भारतीय निवासियों के रूप में प्रस्तुत किया और ब्राह्मणवादी व्यवस्था का विरोध किया।
जाटव आंदोलन: जाटव पहचान को बढ़ावा देकर चमार समुदाय ने अपनी सामाजिक स्थिति को ऊँचा करने का प्रयास किया।
अंबेडकर और दलित आंदोलन: डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने चमार समुदाय को दलित आंदोलन का हिस्सा बनाया। उनकी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (RPI) में चमार/जाटव समुदाय का प्रभुत्व रहा।
आधुनिक परिदृश्य: आज चमार समुदाय शिक्षा, राजनीति, और अन्य क्षेत्रों में प्रगति कर रहा है। हालाँकि, जातिगत भेदभाव और
बहुजन समाज पार्टी (BSP): कांशी राम और मायावती जैसे चमार समुदाय के नेताओं ने BSP के माध्यम से दलित सशक्तिकरण को बढ़ावा दिया। मायावती उत्तर प्रदेश की पहली दलित मुख्यमंत्री बनीं।
4. सांस्कृतिक और धार्मिक योगदान
संत रविदास: चमार समुदाय के सबसे प्रसिद्ध संत, जिन्होंने भक्ति आंदोलन में योगदान दिया। उनकी शिक्षाएँ सामाजिक समानता और आध्यात्मिकता पर आधारित थीं। रविदास को चमार समुदाय का गौरव माना जाता है।
चमार रेजिमेंट: द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेना में चमार रेजिमेंट का गठन हुआ, जो समुदाय की सैन्य योग्यता को दर्शाता है। हालाँकि, इसे 1946 में भंग कर दिया गया।
साहित्य और कला: चमार समुदाय ने लोक गीत, कथाएँ और आधुनिक साहित्य के माध्यम से अपनी संस्कृति को संरक्षित किया। उदाहरण के लिए, चमार जाति इतिहास और संस्कृति जैसी पुस्तकें उनके इतिहास को दर्शाती हैं।
5. विवाद और आलोचनाएँ
चमार शब्द का उपयोग: यह शब्द ऐतिहासिक रूप से अपमानजनक माना गया है, और कुछ स्रोतों में इसे सिकंदर लोदी द्वारा चंवर वंश को अपमानित करने के लिए शुरू किया गया बताया जाता है।
क्षत्रियकरण की प्रक्रिया: चंवर वंश और यदुवंशी दावों को कुछ विद्वान सामाजिक गौरव की खोज और क्षत्रियकरण का हिस्सा मानते हैं, जो ऐतिहासिक साक्ष्यों से पूरी तरह समर्थित नहीं है।
जातिगत तनाव: चमार समुदाय और अन्य दलित समुदायों (जैसे पासी, भंगी) के बीच ऐतिहासिक तनाव रहे हैं, जो सामंतवादी व्यवस्था में उनकी भूमिकाओं से उत्पन्न हुए। हालाँकि, BSP जैसे आंदोलनों ने इन समुदायों को एकजुट करने का प्रयास किया।
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